श्री कलस ग्रन्थ:-
श्री कलस ग्रन्थ के सोलहवे प्रकरण मे स्पस्ट उल्लेख है कि वसुदेव जिस बालक स्वरूप श्री क्रिष्ण को गोकुल ले गये - उन्हे परम्परागत होने वाले विष्णु भगवान का अवतार नहि समजना चाहिये। वे बाल स्वरूप श्री क्रिष्न तो इस क्षर जगत की नश्वर शक्तियो मे से नही, वरन इससे पार के भी पार अक्षर के परे अखंड परमधाम के है - वहा से उनका प्रादुर्भाव हुआ। उन्की दिव्य लीलाए परमधाम की तरह नित्य नई और अखंड है... -
वसुदेव गोकुल ले चले, ताए न कहिए अवतार ।
सो तो नही इन हद का, अखंड लीला है पार ॥ (कलस १८/१४)
इन दोऊ थे न्यारा मंड्ल, जाको कहियत है रास ।
तहा खेल स्याम सखियन का, ए लीला अबिनास ॥
या ठौर लीला करके, हम घर आए सब ।
या इंड कलपांत करके, फ़ेर अखंड किये मिने दिल ॥ (कलस २०/२,२५)
ग्यारह वर्ष और बावन दिन तक अनादि अक्षरातीत श्री क्रिष्ण एवं उनकी ब्रह्मांग्नाओ ने गोकुल लीला इस प्रकार की:-
सुन्दर बालक माधुरी बानी, घर ल्यावे गोद चढाए ।
सेज्याए खिन मे प्रेमे पूरा, सुख देवे चित्त चाहे ॥ (कलस १९/४२)
अर्थात व्रज लीला के अन्तर्गत सभी गोपिकाए परमधाम कीइ पांचवी भोम के सेज्या सुख का आनंद प्राप्त करती थी। श्री क्रिष्ण के सर्वोत्तम सुन्दर स्वरूप और मीठी नधुर वाणी से मोहीत होकर जब वे उनको गोद मे उठाकर अपने घर लाती, तब भावावेश मे प्रेम की दिव्य मस्ती मे सराव्रोर होकर परमधाम मे होने वाली किशोर लीला का सुख भी उन्हे वहा प्राप्त होता था -
अखंड लीला अहिनिस, हम खेले पिया के संग ।
पूरे पीउजी मनोरथ, ए सदा नवले रंग ॥ (कलस १९/४४)
श्री क्रिष्ण महामंत्र तारतम की अनिर्वचनीय महिमा का वर्णन करते हुये श्री महामति जी श्री कलस ग्रन्थ के जागनी के प्रकरण मे कहते है:-
बोहोत धन ल्याए धनी धाम थे, बिध बिध के प्रकार ।
सोए सब मे तोलिया, तारतम सब मे सार ॥
तारतम को बल कोई न जाने, एक जाने मुल सरूप ।
मूल सरूप के चित की बाते, तारतम मे कई रूप ॥
साख्यात सरूप इन्द्रावती, तारतम को अवतार ।
वासना होसी सो बलगसी, इस वचन के विचार ॥
इन्द्रावती के मै अंगे संगे, इन्द्रावती मेरा अंग ।
जो अंग सौपे इन्द्रावती को, ताए प्रेमे खेलाऊ रंग ॥
बुध तारतम जित भेले, तित पहले जानो आवेस ।
अग्या दया सब पूरन, अंग इन्द्रावती प्रवेश ॥ (कलस २३/५४,५५,५६)
श्री इन्द्रावती मे अखर की जाग्रुत बुद्धि, आवेश, तारतम, आदेश व दया - श्री राजजी की मेहेर सब समाहित है। इसलिए हबशा (प्रबोध पुरी) मे संवत १७१५ मे अवतरीत गुजराती प्रकास मे कहा गया है :-
ते माहें एक इन्द्रावती, केहेवाणी सहूमा महामति ॥
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुद्ध अवतार ।
इच्छा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस ॥ (गुजराती प्रकास ३७/२१-२२)
अतएव प्रादुर्भाव से अर्थात सम्वत १६७५ से ही श्री राजजी के मेहर के स्वरूप श्री मेहेराज श्री इन्द्रावती - श्री महामति के नाम से प्रसिद्ध है, श्री राजजी के पांचो स्वरूप (बुद्धि, तारतम, आवेश, आज्ञा, और दया ) श्री मेहेराज के स्वरूप मे श्री इन्द्रावती के अन्दर समाविष्ट है।
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श्री कलस ग्रन्थ के सोलहवे प्रकरण मे स्पस्ट उल्लेख है कि वसुदेव जिस बालक स्वरूप श्री क्रिष्ण को गोकुल ले गये - उन्हे परम्परागत होने वाले विष्णु भगवान का अवतार नहि समजना चाहिये। वे बाल स्वरूप श्री क्रिष्न तो इस क्षर जगत की नश्वर शक्तियो मे से नही, वरन इससे पार के भी पार अक्षर के परे अखंड परमधाम के है - वहा से उनका प्रादुर्भाव हुआ। उन्की दिव्य लीलाए परमधाम की तरह नित्य नई और अखंड है... -
वसुदेव गोकुल ले चले, ताए न कहिए अवतार ।
सो तो नही इन हद का, अखंड लीला है पार ॥ (कलस १८/१४)
इन दोऊ थे न्यारा मंड्ल, जाको कहियत है रास ।
तहा खेल स्याम सखियन का, ए लीला अबिनास ॥
या ठौर लीला करके, हम घर आए सब ।
या इंड कलपांत करके, फ़ेर अखंड किये मिने दिल ॥ (कलस २०/२,२५)
ग्यारह वर्ष और बावन दिन तक अनादि अक्षरातीत श्री क्रिष्ण एवं उनकी ब्रह्मांग्नाओ ने गोकुल लीला इस प्रकार की:-
सुन्दर बालक माधुरी बानी, घर ल्यावे गोद चढाए ।
सेज्याए खिन मे प्रेमे पूरा, सुख देवे चित्त चाहे ॥ (कलस १९/४२)
अर्थात व्रज लीला के अन्तर्गत सभी गोपिकाए परमधाम कीइ पांचवी भोम के सेज्या सुख का आनंद प्राप्त करती थी। श्री क्रिष्ण के सर्वोत्तम सुन्दर स्वरूप और मीठी नधुर वाणी से मोहीत होकर जब वे उनको गोद मे उठाकर अपने घर लाती, तब भावावेश मे प्रेम की दिव्य मस्ती मे सराव्रोर होकर परमधाम मे होने वाली किशोर लीला का सुख भी उन्हे वहा प्राप्त होता था -
अखंड लीला अहिनिस, हम खेले पिया के संग ।
पूरे पीउजी मनोरथ, ए सदा नवले रंग ॥ (कलस १९/४४)
श्री क्रिष्ण महामंत्र तारतम की अनिर्वचनीय महिमा का वर्णन करते हुये श्री महामति जी श्री कलस ग्रन्थ के जागनी के प्रकरण मे कहते है:-
बोहोत धन ल्याए धनी धाम थे, बिध बिध के प्रकार ।
सोए सब मे तोलिया, तारतम सब मे सार ॥
तारतम को बल कोई न जाने, एक जाने मुल सरूप ।
मूल सरूप के चित की बाते, तारतम मे कई रूप ॥
साख्यात सरूप इन्द्रावती, तारतम को अवतार ।
वासना होसी सो बलगसी, इस वचन के विचार ॥
इन्द्रावती के मै अंगे संगे, इन्द्रावती मेरा अंग ।
जो अंग सौपे इन्द्रावती को, ताए प्रेमे खेलाऊ रंग ॥
बुध तारतम जित भेले, तित पहले जानो आवेस ।
अग्या दया सब पूरन, अंग इन्द्रावती प्रवेश ॥ (कलस २३/५४,५५,५६)
श्री इन्द्रावती मे अखर की जाग्रुत बुद्धि, आवेश, तारतम, आदेश व दया - श्री राजजी की मेहेर सब समाहित है। इसलिए हबशा (प्रबोध पुरी) मे संवत १७१५ मे अवतरीत गुजराती प्रकास मे कहा गया है :-
ते माहें एक इन्द्रावती, केहेवाणी सहूमा महामति ॥
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुद्ध अवतार ।
इच्छा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस ॥ (गुजराती प्रकास ३७/२१-२२)
अतएव प्रादुर्भाव से अर्थात सम्वत १६७५ से ही श्री राजजी के मेहर के स्वरूप श्री मेहेराज श्री इन्द्रावती - श्री महामति के नाम से प्रसिद्ध है, श्री राजजी के पांचो स्वरूप (बुद्धि, तारतम, आवेश, आज्ञा, और दया ) श्री मेहेराज के स्वरूप मे श्री इन्द्रावती के अन्दर समाविष्ट है।
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