श्री किरंतन:-
श्री किरंतन ग्रन्थ मे महामति प्राणनाथ जी कहते है कि श्री क्रिष्ण महामंत्र 'निजनाम' अब प्रकट हो गया, जिसकी राह सभी दुनिया के लोग स्रुष्टि के आदिकाल से देख रहे थे। संसार के सभी प्राणी इसी आशा और विश्वास मे थे कि अखंड परमधाम कि ब्रह्मात्माए आकर इस महामंत्र 'निजनाम' के द्वारा समस्त जीवो को अखंड मुक्ति प्रदान करेंगे:-
निजनाम सोई जाहेर हुआ, जाकी सब दुनी राह देखत ।
मुक्ति देसी ब्रह्माण्...ड को, आए ब्रह्म आतम सत ॥ (किरंतन ७६/१)
हामी और सामी दोनो परम्पराओ के धर्म ग्रन्थ वेद और कतेब के अध्ययन से एवं 'निजनाम' के ज्ञान से सभी प्राणियो को यह सार तत्व अनुभव होने लगा कि अखंड सुख-परम्पद पाने के लिए, कोई भीसाधन-श्री क्रिष्ण नाम स्मरण की तुलना मे नही आ सकता। क्योंकि तरह-तरह के व्रत, अनुष्ठान करे, ज्ञानी बन कर कथा - चर्चा मे रात दिन रमे रहे या कठिन कठोर तपस्या करके सब प्रकार के दुखो को धैर्यपुर्वक सहन करे - परन्तु ये सारे उपक्रम या साधन श्री क्रिष्ण नाम की तुलना मे कभी भी आ सकते :-
पर न आवे तोले एक्ने, मुख श्री क्रिष्ण कहंत ।
प्रसिद्ध प्रगट पाधरी, किवता किव करंत ॥
व्रत करो विध विधना, सती थाओ सीलवंत ।
वेष धरो साध संतना, गनानी गनान कथंत ॥
तपसी बहु विध देह दमो, सरवा अंग दुख सहंत ।
पर तोले ना आवे एक्ने, मुख श्री क्रिष्ण कहंत ॥ (किरंतन १२६/१,४,५)
निजनाम अवतरण के साथ ही श्री क्रिष्ण सकींर्तन के माध्यम से जब श्र्वास श्र्वास मे श्री निज्नाम जप होने लगता है, तब 'आज' अर्थात नित्य श्री क्रिष्ण प्रकटन की बधाई के आनंद गीत आत्मा मे गूंजने लगते है :-
आज बधाई ब्रज घर घर, प्रगट्या श्री नंद कुमार । (किरंतन ५१/१)
अथात आज (नित्य) श्री क्रिष्ण के प्रकट होने के आनंद्गीत प्रत्येक आत्म ग्रुह मे गाये जाते है।
श्री महामति इस बधाई गीत की अन्तिम चौपाई मे कहते है कि श्री क्रिष्न की ब्रुज लीला और रास लीला जो अक्षर ह्रदय मे नित्य अखंड हो गई उसके रहस्य का विस्तार आगे भविष्य मे पुर्ण रूप से होगा जब उसके माध्यम से जागनी के आखिल विश्व ब्रह्मांड को अखंड मुक्ति प्राप्त होगी - क्योंकि श्री महामति के प्राणाधार पूर्णब्रह्म श्री क्रिष्ण प्रकट हुये है:-
ए लीला अखंड थई, एहनो आगल थासे विस्तार ।
ए प्रगट्या पूरन पारब्रह्म, महामति तणो आधार ॥ (किरंतन ५१/१०)
इसलिए श्री जी महाराज कहते है:-
नाम तत्व कह्यू श्री क्रिष्णजी, जे रमे अखंड लीला रास । (किरंतन ६४/७)
अर्थात एक श्री क्रिष्ण नाम ही 'तत्व' है शेष नाम तो सिफायती विशेषण गुण रूप आदि के बोधक है।
वेद्व्यास जी के विषम और असमंजस मे डालने वाले शब्दो को सुनकर उनके गुरू नारद जी ने उन्हे समजाया कि श्री क्रिष्ण के प्रेम बिना समस्त ज्ञान ध्यान मिथ्या है।
तारतम महामंत्र मे भी कहा है - 'श्री श्यामा जी वर सत्य है, सदा सत सुख के दातार ।' श्री श्यामाजी के वर अर्थात अनादि अक्षरातीत श्री क्रिष्ण सत्य है और वे ही सदा अखंड सुख देने वाले है।
महारास की भजनानंद लीला केपरम पावन प्रसंग को अनन्य भक्ति भाव से ग्रहण कर श्री किरंतन ग्रन्थ के प्रकरण ४६,४९,५० मे श्री क्रिष्ण प्रेम की अनन्यता को इस प्रकार प्रकट किया गया है:-
प्रीत प्रगट केम कीजिए, कीजिए छानी छिपाए, मेरे पिउजी ।
तू तो निलज नंद नो कुमार मेरे पीउ जी ॥ (किरंतन ४६/१)
बाई रे बात अमारी हवे कोण सुने, अमे गेहेलाने मलया ॥ (किरंतन ४९/१)
बाई रे गेहेलो वालो गेहेली बात करे, एहने कोई तमे वरजो ॥ (किरंतन ५०/१)
श्री क्रिष्ण के इस आध्यात्मिक प्रेम को ब्रह्ममुनि सुन्दरसाथ ही समज सकते है, क्योंकि इसमे विषय - वासनाओ - भौतिक सुख वैभव और शारीरिक - इन्द्रियो की कामुकता की कही भी कोई गंध नही है - यह तो परमधाम के परम पवित्र दिव्य प्रेम की आत्मानुभूति है।
प्रणामजीSee More
श्री किरंतन ग्रन्थ मे महामति प्राणनाथ जी कहते है कि श्री क्रिष्ण महामंत्र 'निजनाम' अब प्रकट हो गया, जिसकी राह सभी दुनिया के लोग स्रुष्टि के आदिकाल से देख रहे थे। संसार के सभी प्राणी इसी आशा और विश्वास मे थे कि अखंड परमधाम कि ब्रह्मात्माए आकर इस महामंत्र 'निजनाम' के द्वारा समस्त जीवो को अखंड मुक्ति प्रदान करेंगे:-
निजनाम सोई जाहेर हुआ, जाकी सब दुनी राह देखत ।
मुक्ति देसी ब्रह्माण्...ड को, आए ब्रह्म आतम सत ॥ (किरंतन ७६/१)
हामी और सामी दोनो परम्पराओ के धर्म ग्रन्थ वेद और कतेब के अध्ययन से एवं 'निजनाम' के ज्ञान से सभी प्राणियो को यह सार तत्व अनुभव होने लगा कि अखंड सुख-परम्पद पाने के लिए, कोई भीसाधन-श्री क्रिष्ण नाम स्मरण की तुलना मे नही आ सकता। क्योंकि तरह-तरह के व्रत, अनुष्ठान करे, ज्ञानी बन कर कथा - चर्चा मे रात दिन रमे रहे या कठिन कठोर तपस्या करके सब प्रकार के दुखो को धैर्यपुर्वक सहन करे - परन्तु ये सारे उपक्रम या साधन श्री क्रिष्ण नाम की तुलना मे कभी भी आ सकते :-
पर न आवे तोले एक्ने, मुख श्री क्रिष्ण कहंत ।
प्रसिद्ध प्रगट पाधरी, किवता किव करंत ॥
व्रत करो विध विधना, सती थाओ सीलवंत ।
वेष धरो साध संतना, गनानी गनान कथंत ॥
तपसी बहु विध देह दमो, सरवा अंग दुख सहंत ।
पर तोले ना आवे एक्ने, मुख श्री क्रिष्ण कहंत ॥ (किरंतन १२६/१,४,५)
निजनाम अवतरण के साथ ही श्री क्रिष्ण सकींर्तन के माध्यम से जब श्र्वास श्र्वास मे श्री निज्नाम जप होने लगता है, तब 'आज' अर्थात नित्य श्री क्रिष्ण प्रकटन की बधाई के आनंद गीत आत्मा मे गूंजने लगते है :-
आज बधाई ब्रज घर घर, प्रगट्या श्री नंद कुमार । (किरंतन ५१/१)
अथात आज (नित्य) श्री क्रिष्ण के प्रकट होने के आनंद्गीत प्रत्येक आत्म ग्रुह मे गाये जाते है।
श्री महामति इस बधाई गीत की अन्तिम चौपाई मे कहते है कि श्री क्रिष्न की ब्रुज लीला और रास लीला जो अक्षर ह्रदय मे नित्य अखंड हो गई उसके रहस्य का विस्तार आगे भविष्य मे पुर्ण रूप से होगा जब उसके माध्यम से जागनी के आखिल विश्व ब्रह्मांड को अखंड मुक्ति प्राप्त होगी - क्योंकि श्री महामति के प्राणाधार पूर्णब्रह्म श्री क्रिष्ण प्रकट हुये है:-
ए लीला अखंड थई, एहनो आगल थासे विस्तार ।
ए प्रगट्या पूरन पारब्रह्म, महामति तणो आधार ॥ (किरंतन ५१/१०)
इसलिए श्री जी महाराज कहते है:-
नाम तत्व कह्यू श्री क्रिष्णजी, जे रमे अखंड लीला रास । (किरंतन ६४/७)
अर्थात एक श्री क्रिष्ण नाम ही 'तत्व' है शेष नाम तो सिफायती विशेषण गुण रूप आदि के बोधक है।
वेद्व्यास जी के विषम और असमंजस मे डालने वाले शब्दो को सुनकर उनके गुरू नारद जी ने उन्हे समजाया कि श्री क्रिष्ण के प्रेम बिना समस्त ज्ञान ध्यान मिथ्या है।
तारतम महामंत्र मे भी कहा है - 'श्री श्यामा जी वर सत्य है, सदा सत सुख के दातार ।' श्री श्यामाजी के वर अर्थात अनादि अक्षरातीत श्री क्रिष्ण सत्य है और वे ही सदा अखंड सुख देने वाले है।
महारास की भजनानंद लीला केपरम पावन प्रसंग को अनन्य भक्ति भाव से ग्रहण कर श्री किरंतन ग्रन्थ के प्रकरण ४६,४९,५० मे श्री क्रिष्ण प्रेम की अनन्यता को इस प्रकार प्रकट किया गया है:-
प्रीत प्रगट केम कीजिए, कीजिए छानी छिपाए, मेरे पिउजी ।
तू तो निलज नंद नो कुमार मेरे पीउ जी ॥ (किरंतन ४६/१)
बाई रे बात अमारी हवे कोण सुने, अमे गेहेलाने मलया ॥ (किरंतन ४९/१)
बाई रे गेहेलो वालो गेहेली बात करे, एहने कोई तमे वरजो ॥ (किरंतन ५०/१)
श्री क्रिष्ण के इस आध्यात्मिक प्रेम को ब्रह्ममुनि सुन्दरसाथ ही समज सकते है, क्योंकि इसमे विषय - वासनाओ - भौतिक सुख वैभव और शारीरिक - इन्द्रियो की कामुकता की कही भी कोई गंध नही है - यह तो परमधाम के परम पवित्र दिव्य प्रेम की आत्मानुभूति है।
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Ved padh lo chahe kuran,jab tak apne ko nhi jana--ahchana sab bekar he,..; jivatma-aatma so Parmatma
ReplyDeleteनिज नाम श्री क्रिष्ण जी अनादि अक्षरा तीत सो तो अब जाहिर भयो सब विधि वतन सहित
ReplyDeletePranam ji
ReplyDeletePranam ji
ReplyDeleteप्रणाम जी सभी को
ReplyDeleteपरमात्मा श्री कृष्ण के अलावा कोई बंधनीय नही है
ReplyDeleteY btaiye agr ek bar y mantar le liya to iska tayg kaise kre
ReplyDeleteAap iska tyag kyu krna chahte hain?
DeleteKuy ki ab maan ni h is ke niyam me rhne ka
ReplyDeleteAb kya dharam xodneko vi bidhiya chaiye😂😂??
DeletePranam ji
ReplyDeletePranam ji
ReplyDeleteप्रणाम जी, मेरो नाम प्रजापती गौतम हो र माफ गर्नु होला तर म जस्तो कामै नलाग्ने निकम्मा भातमारा कोइ अरु छैन यहाँ कतै किन की :
ReplyDelete१. जता गए पनि मेरो काम निजानन्दीहरुलाई होच्याउने, धम्क्याउने अनि चिढ्याउने मात्रै हो र यो सबै मेरो धन्दागीरी हो |
२. अरुको बर्चस्व कधापी नबढोस र केवल मेरो व्यक्तिगत र श्री कृष्ण प्रणामी सेवा समितिको मात्रै जगजगी कायम होस्, यो नै मेरो असीम चाहना हो |
३. सत्यसँग मेरो कुनै सम्बन्ध छैन, बेकारको बाद विवाद खडा गरी आफ्नो र अरु सबैको समय बर्बाद गरी हिड्नु मेरो धेरै अघि देखिको अटूट बानी हो |
४. आफ्नो सम्पूर्ण उर्जा वास्तविक महापुरुषहरुको खेदो खन्नमै लगाउनु पर्छ भन्ने सोच विचारधारा भएको प्रखर स्वघोषित विद्वान हुँ |
५. केवल आफ्नो गुण अङ्ग अनि इन्द्रियको भक्ति गर्ने एक अहंकारी पुजारी हुँ म र मलाई मेरो कामबासना र संसारी इच्छाहरु सँग मात्रै सम्बन्ध छ |
६. राम रतन दास, जगदीश चन्द्र आहुजा र राजनका चेलाहरु सबै मेरो सौतिनी भाइ बहिनीहरु हुन र तिनीहरलाइ घृणा गरी, द्वेषको डढेलो फैलाउनुनै मेरो वास्तविक धर्म अनि कर्तब्य रुपी आहार हो |
७. प्रतिभारुपी कोपिला च्याट्ट चुढ़याउनुनै मेरो सौन्दर्य हो र मलाई आफू भन्दा अघि कोइ उर्भर प्रतिभा बढेको सह्य हुदैन |
८. वास्तविक तर्क राख्ने सज्जनहरु सँग मलाई डर लाग्छ |
९. टाउकै फुटाएपनि श्री प्राणनाथजीलाई श्री कृष्णजी भन्दा तल्लो दर्जाको राख्नु अनि देखाउनुनै मेरो जीत हो |
१०. शास्त्रको नाममा गोरखधन्दा गरी गोबिन्द भेडाझैँ सपनाको महलहरु खडा गर्नुनै मेरो आनन्दको श्रोत हो |
११. आफ्नो चेलाहरुले मलाई मात्रै मानी राखून, म बाहेक अन्यत्र कतै नजाउन् र अरु कसैको सेवामा नलागून चाहे त्यो स्वयं श्री प्राणनाथजी नै किन नहोस किनकी शिष्यहरुको मोह गर्नु सार्है प्यारो लाग्छ मलाई र उनीहरुको मान सम्मान बिना म एक पल पनि बाच्न सक्दिन |
१२. कुनै प्रवाहीले स्वयं १०८ आचार्य महाराज श्री बाट तारतम लिएको देख्दा बडो आदर लाग्छ तर कुनै कृष्ण प्रणामीले झुक्केर पनि अहूजा पन्थ पट्टि लागेको सुन्दा पनि सहन नै गर्न सक्दिन म |
१३. नीति-नियम भनेको सानालाई मात्र हो , मलाई चाहिं होइन किनकी मैले जे गरे पनि सर्वमान्य हुनु पर्छ |
१४. अरु कसैलाई त त्रसित पार्न दोजख र नर्कको बहाना देखाउछु तर म स्वयंलाई न त दोजख को भय छ न त नर्कको नै किन भने अखिरमा मेरो कुकर्महरुको खाताको हिसाब भइ म बहिश्तमै जाने हो क्यार! अनि ठिक त्यसको विपरीत बाचुन्जेल अरुलाई भने परमधाम बेचेर सकेसम्म सुखसयलको जीविकोपार्जन गर्ने हो (यो भित्रि रहस्य अरु कसैलाई नभन्नु होला है!) |
१५. पहिलो श्रेणीको कपटी र पाखण्डी (मुनाफिक) भन्दा पनि केहि फरक नपर्ला मलाई यहाँहरुले |
१६. आफ्नो गुट बाहेक अरुबाट आउन सक्ने कुनै पनि आक्रामक प्रश्नहरुदेखी त बिशेष डर लाग्छ र त्यस्तो समयमा कुटनीतिक जवाफ दिन म माहिर छु |
१७. मैले (हामीले) जे गरे पनि चल्छ र हाम्रो संगठनलाई कसैले केहि गर्न सक्दैन किनभने हामी झुण्ड बनाएर हिड्ने गर्छौ |
१८. मेरो देखाउने दाँत एउटा छ भने वास्तविक दाँत अर्को छ र छल गरी भोला समाजलाई प्रहार हानेर घाइते बनाउनुमा नै मेरो बीरता लुकेको छ |
१९. दुष्ट कलियुगे गुरु-चेलामा हुने समस्त गुण छ म (हामी) सँग |
२०. मेरो (हाम्रो) नीति भनेको धार्मिक संस्थाको सक्रिय सदस्य-संख्या बढाउनु मात्र हो, तर गुणस्तर साधक निर्माणमा वा कायममा कुनै चासो राख्नु हैन |