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Monday, May 28, 2012

Shree Mukhwani (Shree Kuljam Sarup - Shree Tartam Wani) Ka Khulasa

प्रथम अध्याय - माया का निरुपण
(A) (स्वरुप, उदगम एवं विस्तार)

" वीर्य हिरण्यमयम देवो मायया व्यस्रुजत त्रिधा " (भा. २/१०/९३)


व्याख्या:- पुर्ण ब्रह्म अक्षरातीत सच्चिदानंद स्वरुप परमात्मा की प्रेरणासे, अक्षरब्रह्म के ह्रदय से सुमंगला नामक शक्ति ने निकल कर महा मोहरुप निद्रा का रुप धारण किया। इस की विक्षेपा और आव्रुति नाम की दो शक्तिया है। आव्रुति ने ज्ञान ढक दिया और विक्षेपा से भ्रम उत्पन्न हुआ। फलस
्वरुप, अक्षरब्रह्म जाग्रुत अवस्था में देखने वाले ब्रह्मांड को फरामोशी की नींद में डूब कर देखने लगे और अक्षरब्रह्म का मन अंडकार हो कर, उस महा मोह रुप जल में तैरने लगा।
यथा:-

नि:प्रभेडस्मिन निरालोके सर्वत: तमसाव्रुते ।
ब्रहतअंडम अभूत एकम अक्षरम कारणम पदम ॥ (मार. पु. १३/२९)
वर्षयुग सहस्त्रान्ते तदडंम उदके शयम ।
काल कर्म स्वभावस्थो जीवो जीवमजीवयत ॥ (भा. ६/३४)

इस प्रकार जल में तैरता हुआ अक्षरब्रह्म का मन ही हिरण्य गर्भ अण्ड है। जब तक उस में अक्षर ब्रह्म की चेतन सूरत संचारित नहीं हुई, तब तक वह निर्जीव रहा। तत्पश्चात जिस प्रकार स्वप्न में स्वयं की चित सूरत का ही सब कुछ दिखाई देता है, इसी प्रकार अक्षरब्रहम की सुरता ही अण्ड में जीव रुप हो कर प्रविष्ट हुई और अण्ड फूट गया। परिणाम स्वरुप अक्षरब्रह्म की सूरत जन्य पुरुष नारायण के रुप में आ गई। इसी रुप को पुरुष अवतार की संज्ञा देते हुए श्री मद भागवत के प्रथम स्कंध में, इस की महीमा का गान इस प्रकार हुआ है:-

जग्रुहे पौरुषं रुपं भगवान महदादिभि: ।
सम्भूतं षोडश कलमादौ लोकसि स्रुक्षया ॥
यस्याम्भसि शयानस्य योग निद्राम वितन्वत: ।
नाभि ह्रदाम्बुजादासीत ब्रह्मा विश्व स्रुजाम पति ॥

अर्थात:
भगवान ते महत - तत्व आदि से निष्पन्न पुरुष रुप धारण किया। उस में दस इन्द्रिया एक मन और पांच भूत - ये सोलह कलाएं थी। उन्हों ने कारण जल में शयन करते हुए, निद्रा का विस्तार किया, तन उनके नाभि सरोवर से एक कमल प्रगट हुआ और उस कमल से ब्रह्माजी उतपन्न हुए, जिन्हों ने क्रमश: मानसिक एवं मैथुन स्रुष्टि की रचना की। अत: " श्री मुख वाणी " के " किरन्त ग्रन्थ " में, इस संदर्भ में उल्लेख हुआ है:-

(क)
१ कहो कहो जी ठौर नहेचल, वतन कहां ब्रह्म को ॥ टेक ॥
तुम तीन सरीर तज भए ब्रह्म, पायो पूरन ज्ञान ।
जो लो संसे ना मिटे, साधों तो लो होत हेरान ॥

२ पेहेले पेड देखो मायाको, जा को ना पाइए पार ।
जगत जनेता जोगनी, सो कहावत बालकुमार ॥

३ मात पिता बिन जन्मी, आपे बंझा पिंड ।
पुरुष अंग छूयो नहीं, और जायो सब ब्रह्मांड ॥

४ आद अंत या को नहीं, नहीं रुप रंग रेख ।
अंग न इन्द्री तेज न जोत, एसी आप अलेख ॥

५ पढ पढ थाकें पंडित, करी न निरने किन ।
त्रिगुन त्रिलोकी होए के, खेले तीनों काल मगन ॥

६ विस्नु, ब्रह्मा, रुद्र, जन्मे हुई तीनो की नार ।
निरलेप काहू न लेपही, नारी है परनाहीं आकार ॥

७ गगन पाताल मेर सिखरों, अष्ट कुली बनाए ।
पचास कोट जोजन जिमी, सागर सात समाए ॥

८ लाख चौरासी जीब जंत, ए बांधे सबे निरवान ।
थिर चर आद अनादलों, ए मरी चारों खान ॥

९ पांच तत्व चौदेलोक, पाव पलमें उपजाए ।
खेल एसे अनेक रचे, नार निरंजन राए ॥

१० ए काली किन पाई नहीं, सब छाया में रहे उरझाए ।
उपजे मोह अहंकार थे, सो मोह में भरमाए ॥

अर्थात :
हे ज्ञानी जनो ! आप बताइए कि अविनाशी भूमिका पार ब्रह्म का धाम कहां है ? आप इस बात का दावा करते हो कि आप ने तीनों शरीरों - स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण, को छोड दिया है अत: आप ब्रह्म रुप है। आप यह भी कहते हो कि आपको शास्त्रों आदि का पुर्णज्ञान है और आप ने तत्व ज्ञान का अनुभव कर लिया है। यदि एसा है तो आप निश्चित रुप से बताइए कि आप का मूल घर कहा है ?

(२) पहले इस माया का मूल देखो। इसका पार नहीं पाया जा सकता। कैसी विडम्बना है कि सारे संसार को जन्म देने वाली योगिनी माया बालकुमारी कहलाती है।

(३) एक तो इसने बिना माता पिता के जन्म लिया। दूसरा यह कि शरीर से बांझ है। पुरुष के शरीर का स्पर्श पाये बिना ही यह सारे संसार की जन्म दात्री बन गई।

(४) इस का कोई आदि अंत नहीं और न ही कोई रुप या आकार ही है। अंग इन्द्रिय तेज ज्योति आदि से विहीन यह अद्रुश्य और अगोचर है ।

(५) इसे जानने के प्रयास में कितने ही पंडित पोथी पढ कर थक गए परन्तु इसके स्वरुप का निर्णय न हो सका। तीनों गुणो को धारण कर, त्रिलोकी की स्वामिनी बनी एवं यही तीनों काल में मग्न हो कर खेल रही है।

(६) ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों को इसने जन्म दिया और फिर तीनों की नारी बन गई। इतना कर के भी यह निर्लिप्ता, किसी पर आसक्त नहीं होती। कहनें को तो यह मोहिनी नारी है, परन्तु इस का कोई आकार नहीं।

(७) इस माया ने आकाश से पाताल तक समेरु पर्वत के शिखर और आठ पर्वतों के समूह को रच डाला। इसी के अन्तर्गत पचास कोटि योजन धरती और सात सागर समा गए।

(८) इस ने चौरसी लाख योनीयों में पडे जीव जन्तुओं को बडी युक्ति से काल बंधन में बांधा हुआ है। चारो खांन अर्थात अण्डज (अंडे से मुर्गी आदि) उदभिज (धरती से वनस्पति आदि) स्वेद्ज ( पसीने से खटमल आदि) एवं पिंडज (शरीर स्पर्श से प्राणी) - इन चारों प्रकार से उतपन्न चल - अचल, जड - चेतन स्रुष्टि में यह अनादि काल से समाई है।

(९) इस माया ने पांच तत्वों के द्वारा पल भर में चौदाह लोक रच दिये। निरंजन देव की रानी (यह माया) एसे ही अनेक खेल रचाती है।

(१०) इस अंधकार की स्रुष्टा, इस काल रात्रि को कोई पकड नहीं पाया। सब प्रतिबिम्ब (छाया) में ही उलझ रहे है। मोह, अहंकार से उत्पन्न सभी जीव मोह में ही भ्रमीत है।

आदरणीय धर्मपरायण सुंदरसाथजी के चरनों में मेरा कोतान कोत प्रणाम

https://www.facebook.com/ShreeTartamSagar

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