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Saturday, May 26, 2012

Shree Mukhwani (Shree Kuljam Sarup Sahab - Shree Tartam Wani) Ka Khulasa



॥ प्राक - वचन ॥ 
इस तथ्य की पुर्नाव्रुति करने की आवश्यक्ता नहीं कि " श्री मुख वाणी " (कुलजम सरुप अथवा तारतम सागर) आत्मा एवं परमात्मा की एक अनुपम गाथा है, जो अपने आप में, अथाह सागर के रुप में, परमधाम से, पूर्णब्रह्म अक्षरातीत सच्चिदानन्द ' सरुप श्री ' राजजी द्वार प्रगट हुई है। इस तारतम वाणी की विशेषत: यह है कि आत्म जाग्रुति के साथ साथ, समस्त धर्मग्रन्थो की भूमिका निर्धारित करके, सब के प्रति निश्च ित मत देती है अर्थात समस्त धर्मो के गूढार्थ स्पष्ट करने की कुंजी है। इतना ही नहीं, यह कुंजी क्षर जगत के पार शून्य निराकार आदि से परे, अक्षर ब्रह्म से भी अतीत का सार तत्तव दर्शाकर आत्माको अपने घर परमधाम एवं अक्षरातीत के अखंड सुख देते हुए मूल स्वरुप में एकाकार करती है। यथा:-

(१) अरस अजीम के बाग जो, हौज जोए जानवर । इत सक जरा न काहू में, मोहोल तथा मन्दिर ॥ (सागर ग्रं.) (२) ए बल देखों कुंजीय का, खूब देखी हक सूरत । हक के दिल के भेद जो, सो इलमें देखी मारफत ॥
(३) बल क्यों कहूं इन कुंजीय का, जो हक दिल गुझ इसक । तिन दरयाव की नेहेरें, उतरी नासूत में बेसक ॥
(४) ए बल देखो कुंजीय का, जिन देखाई निसबत । ए जो रुहें जात हक की, जिन बेसक देखी वाहेदत ॥
 (५) ए बल देखो कुंजीय का, रुहें बैठाई जुदे कर । आप कहे संदेशे कहावही, आप ल्याए जुदे जुदे नाम घर ॥ (सागर ग्रं.) अर्थात:- इस कुंजी - तारतम ज्ञान के द्वारा, नि:संदेह, सत - आत्माओं को परमधाम के २४ पक्षों -- धाम, हौजकौसर ताल, जमुनाकी, माणिक एवं पुखराज पर्वत - वन की नेहेरे, कुंज बन तथा मोहोल मन्दिरो आदि का साक्षातकार हुआ।

 (२) इस कुंजी - तारतम ज्ञान के द्वारा ब्रह्मात्माओं ने जी भर कर " सच्चिदानन्द घन स्वरुप परमात्मा " की छबि को देखा एवं फल स्वरुप अपने ह्रदय में प्रेम एवं इश्क की तरंगो का अनुभव किया।
 (३) सच्चिदानन्द घन स्वरुप श्री राजजी का दिल इश्क का सागर है। उस इश्क सागर से ब्र्हम ज्ञानरुपी नेहेरे पांच सरुपो के माध्यम से इस म्रुत्यु लोक्में उतरी, जिसकी बदौलत संसार के समस्त जीवों को शाश्बत (अखंड) मु्क्ति का अधिकार मिला।
 (४) इस कुंजी - तारतम ज्ञान की एक और खासीयत - विशेषत: देखिये। इस ने ब्रह्मात्माओं का सम्बंध अक्षरातीत ब्रह्म - परमात्मा के साथ अंगी - अंगता के रुप में दर्शाते हुए उन्हे अरस - परस कर दिया और इस प्रकार वाहेदत के एकत्व रुप का आत्माओं को साक्षात कराया।
 (५) इस तारतम ज्ञान रुपी कुंजी का बल तो देखो, इसने आत्माओ के दोनो सरुपों को पहचaान करा दी। जबकि रुहो के असल तन तो परमधाम में बिराजमान है, उन के सुपन के तन इस संसार में मौजूद हैं और आप स्वयं पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत श्री राजजी इस संसार में अवतरित हुए और जुदे जुदे नाम धरकर अर्थात श्री क्रिष्ण, निजानंद स्वामी देवचन्द्रजी तथा श्री प्राणनाथजी आदि के सरुपों में यहां ब्रह्मलीला की और अन्तत: तारतम ज्ञान - खुदाई इलम के द्वारा अखंड मुक्तिधामों के द्वार खोलते हुए संसार के समस्त जीवों को शाश्वत मुक्ति का अधिकारी बना दिया ।
इस संसार में अवतरित होने एवं सत आत्माओ का परमधाम वापिस लौटने तक के सभी प्रसंगो का संक्षिप्त में उल्लेख किया गया है। सर्वप्रथम इस भाग में " माया का निरुपण " उस का स्वरुप, उदगम एवं विस्तार का समावेश है। तत पश्चात प्रक्रुति - शून्य मंडल एवं अखंड मंडल का खुलासा करते हुए, अन्तत: पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत का ब्रह्मात्माओं के साथ अवतरण एवं इस संसार में उन की दिव्य लीलाओं का लगभग ५०० चौपाइयों में संकलन है। इन चौपाइयों द्वारा " श्री मुख वाणी " के मुख्य प्रसंगो को एक सूत्र - लडी में पिरोने का तुच्छ प्रयास किया गया है। यदि इइन चौपाइयो एवं प्रकरणों के चयन में कुछ त्रुटि रह गई हो, तो उसी कमी को प्रथम समझते हुए, सर्वज्ञ सुन्दरसाथ दर - गुजर (नजर अन्दाज) करेंगे और इस भाग में निहित सार तत्व का रस पान करते हुए हमें अनुग्रहित करेंगे।
 प्रेम प्रणाम सुन्दरसाथजी

प्रथम अध्याय - माया का निरुपण
(A) (स्वरुप, उदगम एवं विस्तार)

माया का यदि विश्लेषण किया जाए तो यह दो शब्दो का संगम है - मा तथा या। देव भाषा संस्क्रुत में मा जा अर्थ होता है ' नहीं ' और या का अर्थ होता है ' जो ' अर्थात जो कुछ भी नही - नकारात्मक है, उसे माया कहते है।

वास्तविक रुप में यधपि यह कुछ भी नही, तथापि व्यवहारिक रुप में, यह बडी शक्तिशालिनी है। जडमें चेतन, तथा चेतन में जड का अधि - आरोप कर लेना इसका गुण है। असत को सत तथा सत को असत अथवा शरीर को आत्मा और आत्मा को शरीर समझने का नाम माया है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि भ्रमात्मक ज्ञान माया का स्वरुप है। इसका आकर्षण मरुस्थल (रेगिस्तान) में चमकती हुई रेत की तरह है, जिसे देख कर म्रुग अपनी तुष्णा (प्यास) बुझाने के लिए दौडता है, किन्तु भ्रम अथवा अज्ञान के कारण, उस की प्यास नहीं बुझती, क्योंकी वह केवल जल की प्रतीति होती हौ, वास्तविक जल नहीं। इसी प्रकार माया का आधार भी भ्रमात्मक ज्ञान है, असलीयत कुछ भी नहीं होती। " श्री मुख वाणी " में इस माया को आठ नामों से सम्बोधित किया गया है। यथा:-

मोह, अज्ञान, भरमना, करम काल और सुंन ।
ए सारे नाम नींद के, निराकार निरगुन ॥ (कलस ग़्रं.)

माया का भली भांति निरुपण करने पर इस तथ्य की पुष्टि होती हौ कि इस की उत्पत्ति स्रुष्टि के आदि से है अर्थात जब से स्रुष्टि का प्रारम्भ हुआ है, उसी के साथ इस का भी जन्म हुआ है। यही कारण है कि " श्री मुख वाणी " में इस ब्रह्मांड को मायावी अथवा ठगनेवाला कहा है। बडे बडे ज्ञानी मुनि एवं साधु जन भी इस के प्रभाव से बच न सके। श्री महामतिजी दो - एक उदाहरण देते हुए, " श्री मुख वाणी " के " प्रकाश ग्रन्थ " मे इस का चित्रण निम्न रुप से करते है:-

एसा खेल छल का, छोडाए नहीं ।
ब्रह्मांड की कारीगरी सारी करी सही ॥
कबूतर बाजीगर के, जैसे कडियां भरियां ।
तब ही देखे फूंक देएके, तुरंत खाली करिया ॥
एसी बाजी इन छल की, ब्रह्मांड जो रचियो ।
देख बाजी कबूतर, साथ मांहे मचियो ॥

अर्थात:- जिस प्रकार बाजीगर, जादू के खेल मे कबूतर बना कर, पिटारा भर देता है और फूंक मारने से वे कबूतर कहां अद्रुश्य हो जाते हैं, तथ्य का पता नहीं चलता और उस का पिटारा वैसे ही खाली दिखाई देता है, इसी प्रकार ब्रह्मांड का खेल भी, जादूगर के खेल की तरह रचा गया है। आत्माएं जादू के कबूतरों को देखने के लिए परमधाम अपने मूल स्थान से चली आई और इस संसार में आ कर, यहां मग्न हो गई और भ्रमित हो रही है।

आंबो बोए, जल सींचियो, तब ही फूले फलियो ।
विध विध की रंग बेलियो, बन उपर चढियो ॥
ए देख चित्त भरमिया, सुध नहीं सरीर ।
विकल भई रंग बेलियां, चित्त नांही धीर ॥
तत रिवन कछु न देखिये, बाजीगर हाथ ।
आंबो न कछु बेलिया, या रंग बांध्यो साथ ॥

अर्थात:-
जिस प्रकार जादूगर, अपनी जादू की शक्ति से, एक आम के बीज को रोप देता है और सींच कर तुरन्त फलता फूलता व्रुक्ष बना देता है और उस पर विविध रंगो की बेलें भी चढा देता है। परिणाम स्वरुप, एसे करतब (कार्य कुश्लता) को देखकर देखनेवाला मन, भ्रमित हो जाता है और उसे अपने शरीर तक ही सुधि नहीं रहती। उसकी समझ में यह नहीं आता की ये विविध रंगो की बेलें, व्रुक्ष आदि कहां से प्रगट हो गए ? इस संकल्प में, मन स्थिर नहीं रहता। फिर उसी क्षण देखते है कि जादूगर के हाथ कुछ नहीं होता। न तो आम ही दिखाई देता है और न ही उस पर चढी हुई बेलें। श्री महामति जी कहते हैं कि इसी प्रकार संसार के सम्मोहन में, ब्रह्मात्माए भ्रमित हो रही है अर्थात इस शरीर रुपी आम्र व्रुक्ष में, कुटुम्ब परिवार की बेलें, फुलती फलती हैं, परन्तु म्रुत्यु के समय, कोई कुछ नहीं देख पाता।

प्रणाम श्री राजजी के लाडलें सुंदरसाथजी को

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