प्रथम अध्याय - माया का निरुपण
(B) प्रक्रुति की पहचान
(ख) ॥ मोह जल ॥
१ भवजल चौदे भवन, निराकार पाल चौफेर ।
त्रिगुन लहरी निरगुन की, उठे मोह अहम अंधेर ॥
अर्थात: यह भव जल किसे भव सागर अथवा मोह सागर भी कहते है, की सीमा बडी
विस्त्रुत है - लम्बी चौडी है। इस के अन्तरगत, चौदह लोक, अष्टावरण, ज्योति
स्वरुप, मोह तत्व, सात शून्य आदि का अपार विस्तार है। एसे मोह सागर के
चारों ओर निराकार का घेरा है। इस अंधकार से पुर्ण मोह सागर में त्रिगुन एवं
निर्गुण की लहरे उठा करती है।
२ तान तीखे ज्ञान इलम के, दुंद भमरियां अकल ।
बहें पंथ - पैडे, आडे उलटे, झुठ अथाह मोह जल ॥
अर्थात: इस मोह सागर की भली भांति, जानकारी न होने के कारण, लोगों में
ज्ञान अथवा इलम की अनावश्यक रवेंचा तानी मची है। यह रवेचातानी (अपने मत को
सर्व श्रेष्ट कहना) जन साधारण की बुद्धि में दुविधा के बवंडर खडा कर देती
है। असंख्य पंथ पैडे, दिन मजहब उलटे सीधे मार्गो की तरह चल निकले है,
परन्तु वे इस मोहजल से, जो अथाह असत्य का सागर है, से निकलने या पार
पहुंचाने में असमर्थ है।
३ ता में बडे जीव मोह जल के, मगरमच्छ विकराल ।
बडा छोटे को निगलत, एक दूजे का काल ॥
अर्थात: इस मोह सागर में मगरमच्छ से भी विकराल और भयंकर जीव है। बडा जीव
छोडे जीव को निगल रहा है। समस्त जीव काल के समान, एक दुसरे को निगलने
(दबोचने) के लिए तत्पर रहते हैं।
४ घाट न पाई वाट किने, दिस न काहूं द्वार ।
उपर तले मांहे बाहेर, गए कर कर खाली विचार ॥
अर्थात: इस मिथ्या भव सागर में किसी को घाट और वाट (मार्ग) नहीं मिला,
फिर दिशा और द्वार क तो कह्ना ही क्या ? बडे बडे ज्ञानी जन, जिन्हो ने
अन्दर बाहेर, चारो ओर दसो दिशाओं को भी ठोक बजाकर देखा, वे भी अपने थोथे
(सीमित) मंतव्य को देकर चले गए।
५ जीवे आतम अंधी करी, मिल अंतस्करण अंधेर ।
गिरदवाए अंधी इन्द्रियां, तिन लई आतम को धेर ॥
अर्थात: यहां जीव ने अन्तस्करण से मिल कर, आत्मा को अंधा बना दिया है।
अंग अंग को वशीभूत करने वाली इन्द्रियों के मादक रस ने चारों ओर से आत्मा
को घेर रखा है।
६ पांच तत्व, तारा ससि, सूर फिरें फिरे त्रिगुन निरगुन ।
पुरुष प्रक्रुति या में फिरें, निरांकार निरंजन सुनं ॥
अर्थात: पांच तत्व, चन्द्रमा, सूर्य, तारागण एवं नक्षत्र तथा त्रिगुन एवं
निर्गुण सब के सब उसी व्रुत (दायरे) में घूम रहे है। पुरुष या प्रक्रुति
कोई भी स्थिर नहीं। निराकार - निरंजन शून्य सहित सभी चलायमान है। ये सब पल
पल पैदा होते है और उसी क्षण विनष्ट हो जाते है।
७ देत काल परिक्रमा इनकी, दोऊ तिमिर तेज दिखाए ।
गिनती सरत पहुंचाए के, आखिर सबे उडाए ॥
अर्थात: अंधकार और प्रकास, रात तथा दिन का व्रुत पूरा कर के, काल इन के
आसपास परिक्रमा करता है। समय का चक्र श्वांसो की गिनती पूरी होते ही अन्त
में यह काल, सब को लील (निगल) लेता है।
८ महाविष्णु सुन्य प्रक्रुति, निराकार निरंजन ।
ए काल द्वैत को कौन है, ए सुध नहीं त्रिगुन ॥
अर्थात: इस प्रकार महा विष्णु, शून्य प्रक्रुति, निराकार और निरंजन आदि
द्वैत भाव (महा - माया) का काल अथवा समाप्त करने वाला, अद्वैत स्वरुप कौन
है, इस की सुधि त्रिगुण - त्रिदेवा तक को भी नहीं।
९ प्रलय पैदा की सुध नहीं, तो ए क्या जाने अक्षर ।
लोक जिमी आसमान के, इन की याही बीच नजर ॥
अर्थात: जिन्हे उत्पत्ति और लय की ही पूरी पहचान नही, वे अक्षर ब्रह्म के
विषय में क्या जाने ? यह अक्षर ब्रह्म, अक्षरातीत का सत अंग है, जो एक
पलमें, एसे कई ब्रह्मांड उत्पन्न करते है और पलभर में ये ब्रह्मांड उत्पन्न
होकर, लय भी हो जाते है।
१० सो अक्षर मेरे धनी के, नित आवे दरसन ।
ए लीला इन भांत कीइ, इत होत सदा बरतन ॥
अर्थात: एसे अक्षर ब्रह्म, मेरे अक्षरातीत स्वामी के नित्य दर्शन को आते
हैं। इस प्रकार की अनेक लीलाए, वहां नित्य निरंतर चलती रहती है।
११ अक्षरातीत के मोहोल में, प्रेम इसक बरतत ।
सो सुध अक्षर को नहीं, किन विध केल करत ॥
अर्थात: अक्षरातीत ब्रह्म के मोहोल में, सम्पादित होने वाली लीला का आनंद क्या है, इसकी सुधि अक्षर ब्रह्म तक को नहीं।
१२ सो सुध, वतन मोहे सब दियो, मेरे अक्षरातीत धनी ।
ब्रह्म स्रुष्ट मिने सिरोमण, मैं भई सुहागनी ॥
अर्थात: वही परमधाम अखंड वतन है एवं पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत ही हमारी
आत्मा के प्रियतम पति है। अपनी आत्मा का उन में समागम (एकाकार) करके मैं
सुहागिन हो गई ।
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मेरे मिठे बोलें साथजी, हुआ तुम्हारा काम ।
प्रेम में मगन होईयों, खुलियां दरवाजा धाम ॥
श्री राजजी के लाडलें सुंदरसाथजी के चरनों में मेरा मंगल प्रणाम
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