श्री प्रकास ग्रन्थ:-
श्री प्रकास ग्रन्थ का प्रारम्भ श्री क्रिष्ण की रास लीला के स्मरण से होता है कि रास लीला खेल कर सभी ब्रह्मात्माए अपने प्रियतम के साथ अपने नित्य निवास अखंड परमधाम मे वापस लौटी, किन्तु द्वन्द्वात्मक मायावी जगत की दुख - सुखमय लीला को देखने के लिए पुन: इस जगत मे प्रकट हुई:-
कछु इन बिध कियो रास, खेल फ़िरे घ्रर ।
खेल देखन के कारन, आइया उमेदा कर ॥ (प्रकास १/१)
अन्तर्धान के बाद जब श्...री क्रिष्ण जी प्रकट हुये, तो उनका नित्य नये श्रुंगार मे ब्रह्मात्माओ का भजनानंदी एकात्म से प्रकट परमधाम का नित्य किशोर स्वरूप था। इस स्वरूप मे अनन्यभाव से ब्रह्मात्माओ ने महारास मे परमधाम का अखंड आनंद प्राप्त किया। श्याम स्वरूप श्री क्रिष्ण ने अपना पुर्ण आवेश प्रदान कर अपनी ब्रह्मात्माओ को अनन्तानन्त आनंद प्रदान किया:-
आया स्वरूप कर नए सिनगार, भजानंद सुख लिए अपार ।
दोऊ आतम खेले मिने खांत, सुख जोस दियो कई भांत ॥ ( प्रकास ३७/४०)
श्री मदभागवत मे जब राजा परिक्षीत ने बडी मत अथवा विशाल बुद्धिवाले महापुरूष के लक्षण पूछे तो श्री शुकदेव मुनि ने उन्हे बताया कि श्री क्रिष्ण जी से जो अनन्य भाव से प्रेम करे वह बडी बुद्धिवाला और इसके विपरीत सभी कुमत है। इसी प्रसंग को श्रीजी महाराज ने श्री प्रकास ग्रन्थ मे इस प्रकार कहा है:-
बडी मत सो कहिए ताए, श्री क्रिष्ण जी सो प्रेम उपजाए ।
मत की मत तो ए है सार, और मत को कहू विचार ॥
बिना श्री क्रिष्ण जी जेती मत, सो तू जानियो सब कुमत ।
कुमत सो कहिए किनको, सबथे बुरी जानिए तिन को ॥
ए कुमत कहिए तिन से कहा होए, अंध कूप मे पडिया सोए ।
श्री क्रि्ष्ण जी सो प्रेम करे बडी मत, सो पोहोचावे अखंड घर जित ॥ (प्रकास २१/ ५,६,८,९)
यथार्थ मे विशाल बुद्धि वाले विवेकी ब्रह्मस्रु्ष्टि उसे ही कहा जा सकता है जो श्री क्रिष्ण के चरण कमलो मे अनन्य भाव से प्रेम करे ।
प्रणामजी
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