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Wednesday, May 30, 2012

 
प्रथम अध्याय - माया का निरुपण
(A) (स्वरुप, उदगम एवं विस्तार)

(ख)

१ वेदान्ती माया को यो कहें, काल तीनों जरा भी नांहे ।
चेतन व्यापी जो देखियें, सो भी उडावे तिन पांहे ॥

२ ना कछु नाकछु, ए कहें, ओ सत चिद आनंद ।

असत सत को न संग, ए क्यों कर होए सम्बंध ॥

३ ए जो व्यापक आत्मा, पर आतम के संग ।
क्यों ब्रह्म नेहेचल पाइये, इत बीच नार को फंद ॥

४ निवेरा खीर नीर का महामत करे कौन और ।
माया ब्रह्म चिन्हाए के, सतगुरु बतावे ठौर ॥

अर्थात:
वेदान्ती लोग एक और तो " सर्वखलुइदमब्रह्म " की घोषणा करते है और दूसरी और माया के किए कहते है कि इस माया का तीनो काल - भूत, वर्तमान एवं भविष्य में अस्तित्व ही नहीं। इस प्रकार से सर्वव्यापक चेतन तत्व को भी इसी के अन्त: भुक्त कर देते है।

(२) परम तत्व का परिचय "यह नही है" "यह नही है" अर्थात नकारात्मक शब्दो में देते है। परन्तु वह परम तत्व तो, सत, चिद, आनंद - सच्चिदानंद स्वरुप है। असत्य माया और सत्यब्रह्म कभी नही सकते। इन का सम्बध ही कैसे हो सक्ता है ?

(३) यह आत्मा जो सब में व्याप्त हैं, उस का सम्बंध परात्मसे है। इन दोनों के बीच इस माया का भ्रम जाल फैला है। अखंड अविनाशी ब्रह्म को कैसे पाया जाए, यही प्रश्नात्मक चिह्न है ?

(४) श्री महामतिजी कहते हैं कि खीर तथा नीर का विवेचन अर्थात ब्रह्म और माया का निर्णय, सत गुरु के बिना कौन कर सकता है ? माया और ब्रह्म की पहचान करा के अखंड घर का परिचय मात्र सत गुरु ही दे सकते हैं।

श्री राजजी की लाडली सखी के चरनों में मेरा प्रेम प्रणाम
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(B) प्रक्रुति की पहचान

भगवान गीता में श्री क्रिष्ण जी ने अर्जुन को प्रक्रुति के विषय में बतलाते हुए कहा है।

भूमिरापोडनलो वायु: खंमनोबुद्धरेवच ।
अहंकार इति इयम मे भिन्ना प्रक्रुतिर ष्रुधा ॥

अर्थात:
भूमि (प्रुथ्वी) , जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, मन, बुद्धि, एवं अहंकार - ये उनकी आठ प्रकार की प्रक्रुति है। इस सम्बंध में यदि वैराट के पट (नकशा) का भली भांती अवलोकन किया जाए तो उपरोक्त आठ प्रकार की प्रक्रुति, अष्टावरण - आठ आवरणों के रुप में चौदह लोकों (अतल - वितल - सुतल - तलातल - महातल - रसातल - पाताल तथा भू (म्रुत्यु) लोक, भवंर लोक, स्वर्ग लोक, महर्लोक, जन लोक, तप लोक, एवं सत लोक) को घेरे हुए है जो कि माया का दूसरा रुप है। इस पूर्णतय: पहचान " श्री मुख वाणी " के किरन्तन ग्रन्थ के एक प्रकरण में, निम्न प्रकार से कराई गई है:-

(क)
१ माया आद अनाद की, चली जात अंधेर ।
निरगुन सरगुन होए के व्यापक, आए फिरत है फेर ॥

२ ना पहचान प्रक्रुति की, ना पहचान हुकम ।
ना सुध ठौर नेहेचल की, ना सुध रुप ब्रह्म ॥

३ सुध नही निराकार की और सुध नही सुनं ।
सुध न सरुप काल की, ना सुध भई निरंजन ॥

४ ना सुध जीव सरुप की, ना सुध जीव वतन ।
ना सुध मोह तत्व की, जिन थे अहम उत्पन ॥

५ शास्त्रों जीव अमर कह्यो, और प्रलय चौदे भवन ।
और प्रलय पांचो तत्व, प्रलय कहे त्रिगुन ॥

६ और प्रलय प्रक्रुति कही, और प्रलय सब उतपन ।
ना सुध ब्रह्म अद्दैत की, ए कबहुं न कही किन ॥

७ ए आद के संसे अब लों, किनहुं न खोले किन ।
सो साहेब इत आएके, खोल दिए मोहे सब ॥

८ प्रक्रुति पैदा करे, एसे कई इंड आलम ।
ए ठौर माया ब्रह्म सबलिक, त्रिगुन की प्ररात्म ॥

९ कै इंड अक्षर की नजरों, पल में होए पैदाए ।
एसे ही इंड जात हैं, एक निमख में नास ॥

१० केवल ब्रह्म अक्षरातीत, सत चिद आनंद ब्रह्म ।
ए कह्यो मोहे नेहेचे कर, इन आनंद में हम तुम ॥

११ हबीब बताया हादिए, मेरा ही मुझ पास ।
कर कुरबानी अपनी, जाहेर करुं विलास ॥

१२ ब्रह्म स्रुष्टि और ब्रह्म की है सुध कतेब - वेद ।
सो आप आखर आए के, अपना जाहेर किया सब भेद ॥

अर्थात:
इस मायावी स्रुष्टि की हकीकत बडी विचित्र है। यह *आदिा तथा *अनादि काल से अंधकार में चली जा रही है। कहीं पर साकार रुपमें और कहीं पर निराकार रुपमें, सारे संसार में व्याप्त हो कर आबागमन (जीवन एवं मरण) के चक्कर में पडी है।

(२) इस मायावी संसार के लोगों को अक्षरब्रह्म की इच्छा शक्ति अर्थात मूल प्रक्रुति की पहचान नहीं है, जिस के द्वारा यह स्रुष्टि स्रुजित होती है। न ही उन्हें अखंड एवं अद्वैत धाम की पहचान है और न ही ब्रह्म के वास्तविक स्चरुप का ज्ञान ।

(३) किसी को निराकार और शून्य के तथ्य की भी पहचान नहीं की यह माया किस प्रकार से निराकार हो कर सब में व्याप्त है और अन्तरात्मा में ह्रदय को किस प्रकार अपने अंधकार से शून्य कर देती है, इस की जानकारी भी किसी को नहीं। इस माया की काल शक्ति के द्वारा प्राणियों के प्राण किस प्रकार नष्ट होते हैं और किस प्रकार किसीको नजर न आने से निरंजन कहलाती है, इस तथ्य की पहचान भी किसी को नहीं।

(४) इस संसार के मायावी ज्ञान के लोगों को, यह भी जानकारी नहीं कि उन के जीव का मूल सम्बंध कहां से है और कैसा है तथा इस जीव की उत्पत्ति का स्थान काहां से है ? इस के अतिरिक्त मोहतत्व जिस से अहंकार की उत्पत्ति हुई है उस के उत्पन्न होने का कारण अर्थात कहां से एवं किस प्रकार मोह उत्पन्न हुआ, इस की भी पहचान किसी को नहीं।

(५) शास्त्रों में जीव को तो अमर अविनाशी कर के कहा है और चौदह लोकों की स्रुष्टि को नाशवान बताया है। यहां तक की पांचो तत्व के साथ साथ तीनों गुणो (सत - तम - रज) के देव *ब्रह्म - विष्णु - महेश को भी प्रलय में नाशवान बताया है।

(६) शास्त्र यह भी कहते है कि प्रक्रुति स्वयं प्रलय आधीन है। उस में जो भी रचनाए हैं अथवा जितनी भी वस्तुए पैदा होती है और प्राणी जन्म लेते है वे सब प्रलय में नाश होने वाले है। परन्तु इस माया से रहित अद्वैत ब्रह्म और उस के परम धाम की वार्ता (बात) किसी ने नहीं की।

(७) इन सब के विषयमें, आदि काल से आज तक, चले आ रहे संशयो का निवारण किसीने नहीं किया। निजानंद स्वामी श्री देवचंद्रजी ने यहां प्रकट हो कर इन सब का निवारण कर दिया।

(८) मूल प्रक्रुति, इस संसार की भांति अनेक ब्रह्मांड उत्पन्न करती है। त्रिगुणात्मक तीनों देव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश के परात्म स्वरुप और माया की उत्पत्ति का स्थान अक्षर ब्रह्म के अन्तर्गत सबलिक ब्रह्म है।

(९) एसे कई त्रिगुणात्मक ब्रह्मांड, अक्षरब्रह्म की द्रुष्टि के पाव - पलक (भाव भंगिमा) में पैदा हो कर क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं।

(१०) निजानंद स्वामी धनी देवचंद्रजी ने बताया कि अक्षरातीत ब्रह्म ही केवल अद्वैत सच्चिदानंद स्वरुप परमात्मा है। उसी के परमधाम आनंद धाम में हमारी परात्म विध्यमान है।

(११) हादी - सतगुरु ने यह भी कहा कि तुम्हारा प्रियतम परमात्मा * श्री राजजी निश्चित रुप से तुम्हारे पास (निकटतम) ही हैं। उन पर अपने अहम (मैं पन) को अर्थात स्वयं को निछावर करते हुए, उस की निजलीला में विलास करो और उस अद्वैत एवं प्रेममयी लीला को संसार में जाहेर करो।

(१२) इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत ने सतगुरु के रुप में प्रगट हो कर, ब्रह्म एवं ब्रह्म आत्माओं के जो संकेत वेद और कतेब में है, उन संकेतो को रहस्यमयी वाणी को अन्तिम घडी में अर्थात सामूहीक जागनी की वेला में स्वयं स्पष्ट कर दिए।

श्री राजजी की परम सखीयों के चरणों में मेरा प्रेम प्रणाम
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