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Friday, May 23, 2014


॥ जीव को प्रबोध ॥

सुन मेरे जीव कहूं व्रुतंत, तो को एक देऊ द्रष्टांत ।
सो तू सुनियो एके चित, तो सो कहत हूं कर के हित ॥ १ ॥
परिक्षित यों पूछ्यो प्रश्न, शुक जी मोको कहो वचन ।
चौदे भवन में बडा जोए, मो को उत्तर दीजे सोय ॥ २ ॥
तब शुक जी यो बोले प्रमाण ली जो वचन उत्तम कर जान ।
चौदे भवन में बडा सोए बडी मत का धनी जोए ॥ ३ ॥
भी राजाएं पूछ्या यों बडी मत सो जानिए क्यों ।
बडी मत को कहूं इचार लीजो राजा सबको सार ॥ ४ ॥

अर्थात : हे मेरे जीव ! तुझे द्रष्टांत देकर एक व्रुतान्त कहती हूं। तुम उसे दत्त चित्त होकर श्रवण करना । मुझे तुझ से स्नेह है, इसलिए यह बात कह रही हूं। 

श्रीमद भागवत की कथा सुनते हुए राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव मुनि से यह प्रश्न पूछा कि मुनि जी मुझे इस बात का उत्तर दीजिए कि चौदाह लोकों में सबसे बडा कौन है ?

तब श्री शुकदेव मुनि ने प्रमाण देकर कहा कि मेरे इन वचनों को उत्तम समझकर ग्रहण करना। चौदाह लोकों में वही व्यक्ति बडा है जो महान बुद्धि का धनी अथवा मालिक है।

फिर राजा परीक्षित ने पूछा कि हे मुनि जी ! यह कैसे जाना जए कि अमुक व्यक्ति बडी बुद्धि वाला है ? शुकदेव जी ने कहा कि हे परीक्षित ! सर्वत: विचार करते हुए मेरा जो विवेक है उसे कहता हूं और तुम उस सार को ग्रहण करो। 


बडी मत सो कहिए ताए, श्री क्रुष्ण जी सो प्रेम उपजाए ।
मत की मत है ए सार, और मत को ्कहुं विचार ॥ १ ॥
बिना श्री क्रुष्ण जी जेती मत सो तू जानियो सब कुमत ।
कुमत सो कहिए किनको सबसे बुरी जानिए तिन को ॥ २ ॥
श्री क्रुष्ण जी सो प्रेम करे बडी मत, सो पहुंचावे अखंड घर जित ।
ताए आडो न आवे भव सागर सो अखंड सुख पावे निज घर ॥ ३ ॥
ए सुख या मुख कह्यो न जाए या को अनुभवी जाने ताए ।
ए कुमत कहिए तिन से कहा होए अंधकूप में पडिया सोए ॥ ४ ॥

अर्थात : हे राजन ! इस संसार में बडी बुद्धि वाला उसे ही कहा जा सकता है, जो मन में श्री क्रुष्ण जी के लिए प्रेम उ्त्पन्न करे। सबसे उत्तम विवेक पूर्ण विचार एवं सबसे बडी बुद्धि का सार यही है।

श्री क्रुष्ण जी के अतिरिक्त और किसी ओर ले जाने वाली बुद्धि के जितने भी विचार हैं उन सबको तुम कुमति ही जानो। कुमति अथवा दुर्मति कौन है, उसे क्या कहना चाहिए ? उस बुद्धि को हलकट - निन्दक विचार वाली बुद्धि कहना चाहिए।

बडी मत - महान बुद्धि श्री क्रुष्ण जी से प्रेम करके जीवात्मा को अखंड घर में पहुंचा देती है। भव सागर उसकी राह में बाधा नहीं बनता। वह नित्य ही अपने अखंड घर (निज घर) के सत - सुख अनुभव करती है।

परमधाम के सत - सुखों का वर्णन इस मुख से नहीं हो सकता। इन सुखों को अनुभवी ही जानते हैं। इसके विपरीत जो कुमति अथवा ददुर्मति कहा गया है, उसके वशीभूत होने से क्या होता है ? एसी बुद्धि वाला अंधकूप नाम से नरक में पडा रहता है। 

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