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Friday, May 23, 2014

॥ (आत्मा एवं परमात्मा का संवाद) तथा तारतम का अवतरण ॥


॥ (आत्मा एवं परमात्मा का संवाद) तथा तारतम का अवतरण ॥

सुनियो वाणी सुहागनी, हुती जो अकथ अगम ।
सो बीतक कहूं तुमको, उड जासी सब भरम ॥ १ ॥
रास कह्या कुछ सुनके, अब तो मूल अंकूर ।
कलस होत सबन को नूर पर नूर सिर नूर ॥ २ ॥
कथियल तो कही सुनी, पर अकथ न एते दिन ।
सो तो अब जाहेर भई, जो आग्या थें उतपन ॥ ३ ॥
मासूके मोहे मिल के करी सो दिल दे गुझ ।
कहे तू दे पड उतर, जो मैं पूछत हूं तुझ ॥ ४ ॥
तू कौन आई इत क्यों कर कह्हं है तेरा वतन ।
नार तू कौन खसम की द्रढ कर कहो वचन ॥ ५ ॥ 
तू जागत है कि नींद में, करके देख विचार ।
विध सारो या की कहो इन जिमी के प्रकार ॥ ६ ॥

अर्थात : हे सुहागिन - ब्रह्मात्माओं ! आप अपने प्रियतम के उन अलौकिक वचनों को सुनो, जो आज तक कहे नहीं गए। इन वाणी वचनों में उस अखंड परम अद्वैत मंडल परमधाम की लीला का वर्णन है, जहां कोई नहीं पहुंच सका। आत्मा की इस गाथा अर्थात आत्माओं की यह बीतक - व्रुतांत सुनकर सारे भ्रम तथा संदेह मिट जाएंगे।

श्री इन्द्रावती जी कहती हैं कि रास का वर्णन तो उन्होंने सदगुरू जी के मुखारविंद से सुन्कर किया परन्तु यह तथ्य तो वह परमधाम के अंकूर अथवा मूल सम्बंध होने के नाते कह रही हैं। समस्त शास्त्र पुराणों के ज्ञान मन्दिर के शिखर पर यह जाग्रुत बुद्धि का ज्ञान (तारतम वाणी) कलसवत प्रतिष्ठित होगा। यह इस प्रकार न्याय संगत है कि शास्त्रों का सार अर्थात शास्त्र ज्ञान की ज्योति (नूर) श्री रास में समाहित है, ्वही रास का नूर "प्रकास वाणी" में प्रगटित हुआ। अब कलस वाणी में वह नूर कलस रूप में सुशोभित है। 

शास्त्र पुराणों की कथा एवं गाथाएं इस जगत में सुनने और सुनाने की परिपाटी तो चली आ रही है, परन्तु पूर्णब्रह्म अक्षरातीत की यह अकथ वाणी आज दिन तक न किसी ने कही और न ही सुनी। अब सतगुरू श्री धाम धनी की आज्ञा से यह अगम एवं अकथ वाणी श्री महामति द्वारा प्रगट हुई।

प्रियतम धनी मुझसे मिले और उन्होंने अपने ह्रदय के रहस्यमयी भेद मुझे बताए। तत्पश्चात उन्होंने कहा कि वह कुछ प्रश्न तुझसे पूछना चाहते हैं उसका उत्तर उन्हें दो।

प्रियतम धनी ने प्रश्न करते हुए पूछा तुम कौन हो ? इस जगत में क्यों आई हो ? तु्म्हारा मूल घर अथवा वतन कहां हैं ? तुम्हारे प्रियतम स्वामी कौन हैं, अर्थात तुम किस धनी (साहेब) की अर्धांगनी हो ? तुम इन प्रश्नों का उत्तर मुझे द्रढता पूरवक सोच विचार कर दो। 

फिर यह भी विचार कर देखो कि तुम स्वपनावस्था में हो या जाग्रुत अवस्था में ? इस सारे जगत की वास्तविक्ता क्या है ? यह जगत किस प्रकार का है और यह संसार तुम्हें कैसा लगता है ?


सुनो पिया अब मैं कहूं तुम पूछी सुध मण्डल ।
ए कहूं मैं क्यों कर छल बल वल अकल ॥ १ ॥
मैं न पहचानो आपको ना सुध अपनो घर ।
पीऊ पहचान भी नींद में मै जागत हूं या पर ॥ २ ॥
ए मोहोल रच्यो जो मंडप सो अटक रह्यो अंत्रिक्ष ।
कर कर फिकर कई थके, पर पाई न काहुं रीत ॥ ३ ॥
जल जिमी तेज वाय को अवकास कियों है इंड ।
चौदे तबक चरों तरफों परपंच खडा प्रचंड ॥ ४ ॥

अर्थात: प्रियतमधनी ! इस जगत के विषय में तथा अन्य प्रश्न (मैं कौन आई इत क्यों कर) जो आपने पूछे उसका वर्णन किस प्रकार करूं ? वस्तुत: यह मायावी जगत छलबल एवं कुटिलता से भरा हुआ है। विवेक एवं बुद्धि का पग पग पर हरण करने वाला है। न तो मुझे अपने घर (मूल वतन) की खबर है और न ही मैं आपको तथा अपने आपको पहचानती हूं। केवल मैं इतना जनती हूं कि आप मेरे प्रियतम धनी हैं। यह तथ्य भी नींद की सी अवस्था में ही कह रही हूं क्योंकि आपके स्वरूप की पूरी पहचान नहीं है। अपने जाग्रुत होने का अभी मुझे इतना ही अहसास है।

इस जगत में जहां मैं आज हूं जिस रूप में हूं, की रचना बडी विचित्र है अर्थात इस जगत का जो मंडप रचा गया है, उसके न कोई थंभ (खम्भे) हैं न ही दीवर है और न कोई संध (जोड) है। यह अन्तरिक्ष (अधर) में लटका घूम रह है। इसके मूल की खोज करते रुशी मुनि थक गए, परन्तु किसी ने इसका पार (थाह) नहीं पाया।

पां च तत्व - प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से मिलकर इस चौदे लोक ब्रह्मांड की रचना हुई। इस प्रकार इस ब्रह्मांड की दसों दिशाओं में प्रचंड प्रपंच का ही विस्तार दिखाई देता है।

उपरोक्त "प्रचंड प्रपंच" का अभिप्राय यह है कि साधारणत: यह संसार ऊपर से सीधा सरल एवं स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु इसका फैलाव (विस्तार) बिना मूल (आधार) के है। सुक्ष्म रूप से इस तथ्य पर विचार करने पर इसकी विचित्रता प्रगट हो जाती है। वस्तुत: इसके ऊपर शून्य और नीचे जल है। यह अंतरिक्ष (अधर) में लटक रहा है। इसका निर्माण पांच तत्व जैसा कि ऊपर कहा गया है, से हुआ है। यदि इन पांचो तत्व प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश को अअलग कर देखा जाए तो उनका अन्त ही नहीं परन्तु जब इन पाम्चो को एकत्रित करके देखा जाए तो यह संसार रचा हुआ तथा टिका हुआ द्रष्टि गोचर होता है, जबकि इन पांचो तत्वों में एक तत्व भी स्थिर नहीं अत: यह "प्रचंड प्रपंच" है। 

॥ जीव को प्रबोध ॥

सुन मेरे जीव कहूं व्रुतंत, तो को एक देऊ द्रष्टांत ।
सो तू सुनियो एके चित, तो सो कहत हूं कर के हित ॥ १ ॥
परिक्षित यों पूछ्यो प्रश्न, शुक जी मोको कहो वचन ।
चौदे भवन में बडा जोए, मो को उत्तर दीजे सोय ॥ २ ॥
तब शुक जी यो बोले प्रमाण ली जो वचन उत्तम कर जान ।
चौदे भवन में बडा सोए बडी मत का धनी जोए ॥ ३ ॥
भी राजाएं पूछ्या यों बडी मत सो जानिए क्यों ।
बडी मत को कहूं इचार लीजो राजा सबको सार ॥ ४ ॥

अर्थात : हे मेरे जीव ! तुझे द्रष्टांत देकर एक व्रुतान्त कहती हूं। तुम उसे दत्त चित्त होकर श्रवण करना । मुझे तुझ से स्नेह है, इसलिए यह बात कह रही हूं। 

श्रीमद भागवत की कथा सुनते हुए राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव मुनि से यह प्रश्न पूछा कि मुनि जी मुझे इस बात का उत्तर दीजिए कि चौदाह लोकों में सबसे बडा कौन है ?

तब श्री शुकदेव मुनि ने प्रमाण देकर कहा कि मेरे इन वचनों को उत्तम समझकर ग्रहण करना। चौदाह लोकों में वही व्यक्ति बडा है जो महान बुद्धि का धनी अथवा मालिक है।

फिर राजा परीक्षित ने पूछा कि हे मुनि जी ! यह कैसे जाना जए कि अमुक व्यक्ति बडी बुद्धि वाला है ? शुकदेव जी ने कहा कि हे परीक्षित ! सर्वत: विचार करते हुए मेरा जो विवेक है उसे कहता हूं और तुम उस सार को ग्रहण करो। 


बडी मत सो कहिए ताए, श्री क्रुष्ण जी सो प्रेम उपजाए ।
मत की मत है ए सार, और मत को ्कहुं विचार ॥ १ ॥
बिना श्री क्रुष्ण जी जेती मत सो तू जानियो सब कुमत ।
कुमत सो कहिए किनको सबसे बुरी जानिए तिन को ॥ २ ॥
श्री क्रुष्ण जी सो प्रेम करे बडी मत, सो पहुंचावे अखंड घर जित ।
ताए आडो न आवे भव सागर सो अखंड सुख पावे निज घर ॥ ३ ॥
ए सुख या मुख कह्यो न जाए या को अनुभवी जाने ताए ।
ए कुमत कहिए तिन से कहा होए अंधकूप में पडिया सोए ॥ ४ ॥

अर्थात : हे राजन ! इस संसार में बडी बुद्धि वाला उसे ही कहा जा सकता है, जो मन में श्री क्रुष्ण जी के लिए प्रेम उ्त्पन्न करे। सबसे उत्तम विवेक पूर्ण विचार एवं सबसे बडी बुद्धि का सार यही है।

श्री क्रुष्ण जी के अतिरिक्त और किसी ओर ले जाने वाली बुद्धि के जितने भी विचार हैं उन सबको तुम कुमति ही जानो। कुमति अथवा दुर्मति कौन है, उसे क्या कहना चाहिए ? उस बुद्धि को हलकट - निन्दक विचार वाली बुद्धि कहना चाहिए।

बडी मत - महान बुद्धि श्री क्रुष्ण जी से प्रेम करके जीवात्मा को अखंड घर में पहुंचा देती है। भव सागर उसकी राह में बाधा नहीं बनता। वह नित्य ही अपने अखंड घर (निज घर) के सत - सुख अनुभव करती है।

परमधाम के सत - सुखों का वर्णन इस मुख से नहीं हो सकता। इन सुखों को अनुभवी ही जानते हैं। इसके विपरीत जो कुमति अथवा ददुर्मति कहा गया है, उसके वशीभूत होने से क्या होता है ? एसी बुद्धि वाला अंधकूप नाम से नरक में पडा रहता है। 

॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥ 1

॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥


तुम साथ मेरे सिरदार एह द्रष्टांत ली जो विचार ।

रोसन वचन करूं प्रकास सुक जी की साख ली जो विश्वास ॥ १ ॥
पीऊ पहचान टालो अंतर, पर आतम अपनी देखो घर ।
इन घर की कहां कहूं बात, बचन विचार देखो साख्यात ॥ २ ॥
अब जाहेर ली जो द्रष्टांत, जीव जगाए करो एकांत ।
चौदे भवन का कहिए, धनी लीला करे बैकुंठ में धनी ॥ ३ ॥
लख्मीजी सेवें दिन रात, सोए कहूं तुम को विख्यात ।
जो चाहे आप हेत घर, सो सेवे श्री परमेश्वर ॥ ४ ॥
ब्रह्मादिक नारद कै देव, कै सुर नर करें एह सेव ।
ब्रह्मांड विषे केते लऊं नाम, सब कोई सेवे श्री भगवान ॥ ५ ॥

अर्थात : हे मेरे शिरोमणि सुन्दर साथ जी ! मैं जिन शब्दों को द्रश्टांत के रूप में आपको सुना रहा हुं उन पर आप भली भांति विचार करो। श्री शुकदेव मुनि जी की श्रीमद भागवत इस द्रष्टांत की साक्षी है।

अपने प्रियतम पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत को पहचान कर उनसे अपना अंतर (दूरी) मिटा लो। अपने मूल घर में अपनी परात्म को देखो। परमधाम की मैं क्या बात करूं ? इन वचनों पर विचार करके आप स्वयं उसे साक्षात देखो। 

इस स्पष्ट द्रष्टांत द्वारा जीव को जाग्रुत करके एकाग्र करो। चौदाह लोकों द्वारा पूजित नश्वर जगत के अधिपति श्री विष्णु भगवान बैकुंठ धाम में अनेक प्रकार की लीलाएं करते हैं। 

श्री लक्ष्मी जी उनकी दिन रात सेवा करती हैं। हे सुन्दरसाथ जी ! मैं आपको उनकी एक लीला विस्तार से कहता हूं। बैकुंठ से उत्पन्न उस घर के जीव जो अपना हित या उनके धाम जाना चाहते हैं वे श्री विष्णु भगवान को ही परमेश्वर जानकर उनकी सेवा करते हैं। 

ब्रह्मा, शिव, नार्द आदि कई देवी - देवता और मनुष्य उनकी वन्दना करते हैं। इस ब्रह्मांड में कितने नाम गिनाऊं, जो सब श्री भागवत जी की उपासना करते हैं।


॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥

सुनो लक्ष्मी जी कहूं तु्मको पेहेले सिवें पूछ्या हमको ।
इन लीला की खबर मुझे नांहे, सो क्यों कहूं मैं इन जुंबाए ॥ १ ॥
एह वचन जिन करो उचार, ना तो दुख होसी अपार ।
और इत का जो करो प्रश्न, सो चौदे लोक की करूं रोसन ॥ २ ॥
लक्ष्मी जी वडो पयो दुख कहे न सके, कलपे अति मुख ।
मो सो तो राख्यो अंतर, अब रहूंगी में क्यों कर ॥ ३ ॥
नौनो आसूं बहु विध झरे फेर फेर रमा विनती करे ।
धनी ए अंतर सहयो न जाए, जीव मेरा मांहे कलपाए ॥ ४ ॥
लक्ष्मी जी कहें सुनो राज, मेरे आतम अंग उअपजी ए दाझ ।
नही दोष तुमारा धनी, अप्रापत मेरी है घनी ॥ ५ ॥
अब आज्ञा मागूं मेरे धनी करूं तपस्या देह कसनी ।
अब शरीर मेरा क्यों रहे, ए अगनी जीव न सहे ॥ ६ ॥

अर्थात : हे लक्ष्मी जी ! मैं तुम्हें बताऊं कि आपसे पहले श्री शिव जी ने भी हमसे यह प्रश्न किया था। जिस परम सत्ता की लीला मुझे भी ज्ञान नहीं है, उसे मैं अपनी जुबान से कैसे वर्णन कर सकता हूं ?

यह प्रश्न मुझसे मत पूछो, अन्यथा तुम्हें अति अधिक दुख होगा। इसके अतिरिक्त यदि कोई और प्रश्न करो तो चौदाह लोकों की समस्त बातें यहीं प्रगट कर दूंगा।

यह सुनकर श्री लक्ष्मी जी अति दुखित हुई। वह इतनी क्षुब्ध हुई कि उनके मुख से कुछ कहा न गया। यह सोचकर मेरे स्वामी मुझसे भेद छिपाने लगे हैं, उन्होंने (लक्ष्मी जी) मन में सोचा कि भला अब मैं क्यों जीवित रहूं ?

उनके नेत्रों से झर - झर आंसू बहने लगे। श्री रमा - लक्ष्मी जी बार - बार विनंती करने लगी कि हे प्रियतम ! मुझसे, आपके मन की यह दूरी (तथ्य छिपाने की क्रिया) सहन नहीं होती। मेरी अन्तर आत्मा बहुत दुखी हो रही है।

श्री लक्ष्मी जी अपनी वार्ता को दोहराते हुए कहने लगी हे नाथ ! मेरी आत्मा और शरीर इस अगिन से जल रहे हैं। इसमें सम्भवत: आपका कोई दोष नहीं है, मैं ही इस ज्ञान के प्रति सर्वथा अयोग्य हूं।

अब मेरा शरीर जीवित क्यों कर रहेगा ? मेरा चित्त इस अग्नि को कैसे सहेगा ? मैं आपसे आज्ञा मांगती हूं कि मैं कठोर तपस्या करके अपने आपको उस ज्ञान को ग्रहण करने योग्य बनाऊं। 



॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥

ए तो है एसा समरथ, सेवक के सब सारे अरथ ।
अब तुमया को देखो ज्ञान, बडी मत का धनी भगवान ॥ १ ॥
एक समय बैठे धर ध्यान बिसरी सुध सरीर की सान ।
ए हमेसा करें चितवन, अंदर काहुं न लखावें किन ॥ २ ॥
ध्यान जोर एक समय भयो लागयो सनेह ढांप्यो न रह्यो ।
लख्मी जी आए तिन समे, मन अचरज भए विस्मए ॥ ३ ॥
आए लख्मी जी ठाढे रहे, भगवान जी तब जाग्रुत भए ।
करी विनती लख्मी जी तांहे, तुम बिन हम और कोई सुन्या नांहे ॥ ४ ॥
किन का तुम धरत हो ध्यान सो मो को कहे श्री भगवान ।
मेरे मन में भयो संदेह, कहो समझाओ मो की एह ॥ ५ ॥
कौन सरूप बसे किन ठाम कैसी सोभा कहो क्या नाम ।
ए लीला सुनो श्रवण फेर फेर के लागूं चरण ॥ ६ ॥

अर्थात : श्री विष्णु भगवान इतने समर्थ हैं कि सेवकों की सभी कामनाएं पूर्ण करते हैं। इतनी बडी बुद्धी के स्वामी श्री भगवान जी के ज्ञान की सीमा का अवलोकन कीजिए।

श्री विष्णु भगवान एक समय ध्यान करने के लिए बैठे। तब उन्हों अपने शरीर की भी सुधि न रही। यों तो वह सदैव ही चित्तवन करते हैं, और कभी किसी को पता नहीं लगने देते।

एक बार उनका ध्यान इतना गहरा लग गया कि उनका अपने स्वामी के प्रेति स्नेह छिपा न रहा। उसी समय श्री लक्ष्मी जी वहां आ पहुंची। अपने स्वामी को ध्यान मग्न देख उन्हें बडा आश्चर्य हुआ।

श्री लक्ष्मी जी वहां आकर खडी रही। जब भगवान जी अपनी समाधि से जागे तब श्री लक्ष्मी जी ने विनय पूर्वक कहा कि ये तो हमने कभी नहीं सुना कि आपके बिना कोई और भी पूज्य है।

"हे भगवान ! आप मुझे बताइए कि आप किन का ध्यान कर रहे थे ? मेरे मन में यह बात संदेह उत्पन्न कर रही है। आप मुझे भली भांति समझा कर कहिए। जिनका आप ध्यान कर रहे थे, उनका स्वरूप कैसा है ? और वे कहां विराजमान रहते है ? उनकी शोभा कैसी है और नाम क्या है ? मैं आपके चरणों में बैठकर श्रवण करना चाहती हूं। मुझे यह लीला सुनाइये। 


एता रोस तुम ना धरो, लक्ष्मी जी पर दया करो ।
तुम स्वामी बडे दयाल, लक्ष्मी जी पावे दुख बाल ॥ १ ॥
चलो प्रभु जी जाइए तित बुलाए लक्ष्मी जी आइए इत ।
तब दया कर ए भगवान लक्ष्मी जी बैठे जिन ठाम ॥ २ ॥
लखमी जी परनाम कर आए श्री भगवान जी सन्मुख बुलाए ।
लखमी जी चलो जाइए घरे, तब फेर रमा वानी उचरे ॥ ३ ॥
धनी मेरे कहो वाही वचन जीव बहुत दुख पावे मन ।
जो तप करो कल्पांत एकईस, तो भी जुबां ना वले कहे जगदीस ॥ ४ ॥
देखलाऊं मैं चेहेन कर तब लीजो तुम हिरदे धर ।
तब ब्रह्मा खीर सागर दोए, लखमी जी को विनती होए ॥ ५ ॥
लखमी जी उठो तत्काल दया करी स्वामी दयाल ।
अब जिन तुम हठ करो, आनंद अन्त:करन में धरो ॥ ६ ॥
तब लखमी जी लागे चरने यों बुलाए ल्याए आनंद अति घने ।
तब ब्रह्मा खीर सागर सुख पाए, फिरे दोऊ आए आप अपने घरे ॥ ७ ॥

अर्थात : हे प्रभु ! आप बडे दयालु हो, इतना रोष मत किजीए। श्री लक्ष्मी जी कोमल बाल स्वरूप दु:ख पा रही हैं।

चलिए प्रभु ! वहां चलकर लखमी जी को यहां बुला लायें। तब क्रुपा करके श्री भगवान जी उस स्थान पर आए जहां श्री लखमी जी बैठी तपस्या कर रही थीं।

श्री लक्ष्मी जी ने उन्हें प्रणाम किया। तब श्री भगवान जी ने श्री लख्मी जी से सन्मुख होकर कहा कि चलो अब अपने घर चलें। तब रमा - श्री लखमी जी ने पुन: वही शब्द कहे ।

हे स्वामि ! वही (रहस्य) बताओ, जिसके लिए मेरा मन इतना दुखी हो रहा है। तब श्री भगवान प्रतुत्तर देते हुए बोले कि आप चाहे एक बीस कल्पांत तक तपस्या करें तो भी मेरी जुबान में सामर्थ्य नहीं होगा कि उन वचनों को कह सके। इतना अवश्य है, कि मैं तुम्हें किसी भी संकेत द्वारा वह तथ्य समझ दूंगा, तब तुम उसे मन में धारण कर लेना। यह सुनकर ब्रह्माजी और खीर सागर श्री लक्ष्मी जी से विनय पूर्वक कहने लगे:-

लक्ष्मी जी ! अब आप तत्काल बिना कुछ बहाना किए उठो। क्रुपालु भगवान जी ने आप पर पूरी अनुकम्पा की है अत: सनतुष्ट होकर अपनी अन्तरात्मा में आनंद का अनुभव किजिए।

तब श्री लक्ष्मी जी ने भगवान जी के चरण स्पर्श किए। इस प्रकार श्री बैकुंठ नाथ लक्ष्मी जी को आनंद पूर्वक घर में ले आए और प्रसन्न चित्त होकर ब्रह्मा जी एवं क्षीर सागर दोनों अपने गन्तव्य की ओर चले गए। 



भगवान जी बोले तिन लाओ, लक्ष्मी जी बेर जिन ल्याओ ।
तब कल्पया जीव दुख अनंत कर, उपज्यो वैराग लियो हिरदे घर ॥ १ ॥
इन समे विरह कियो अति जोर, बडो दुख पाए कियो अति सोर ।
एक ठौर बैठे जाए दमे देह, भगवान जी सों पूर्ण सनेह ॥ २ ॥
सीत धूप वरषा न गिने करे तपस्या जोर अति घणे ।
सनेह धर बैठे एकान्त एते सात भए कल्पांत ॥३ ॥
तब ब्रह्मा जी खीर सागर, आए विष्णु बैकुंठ घर ।
ए प्रभु जी ए क्या उत्पात लक्ष्मी जी तप करे कल्पांत सात ॥४ ॥

अर्थात : श्री भगवान जी ने तत्काल कहा कि हे लक्ष्मी जी ! इस सुभ कार्य में देरी मत करो। तब लक्ष्मी जी का मन और उद्विग्न हो गया क्योंकि उन्हें आशा थी कि स्वामी उसे वियोग नहीं देंगे। श्री भगवान जी के यह वचन सुनकर लक्ष्मी जी का जीव व्याकुल हो उठा और उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ।

इस समय मन में विरह की गहन्तम पीडा हुई। इतना दुख हुआ कि वह रह रह का विलाप करने लगी और एक अलग स्थान पर बैठकर अपने शरीर को कठोर साधनाओं में तपाने लगी। इतनी मानसिक वेदना होने पर भी श्री लक्ष्मी जी का स्नेह अपने स्वामी के प्रति पूर्ण एवं अक्षय रहा।

सर्दी, गर्मी तथा वर्षा की परवाह न करते हुए, उन्होंने बडी कठोर तपस्या आरम्भ कर दी। प्रियतम के स्नेह का बल, मन में धारण करके सात कल्पांत तक एकान्त में बैठे तपस्या करती रही।

तब ब्रह्माजी और खीर सागर, श्री विष्णु जी के बैकुंठ धाम में आए और बोले हे प्रभु ! अचानक यह कैसा उत्पात हो रहा है ? श्री लक्स्मी जी सात कल्पांत से तपस्या कर रही है।



अब ए विचार तुम देखो साथ, ना वली जुबां बैकुंठ नाथ ।
ग्रही वसत भारी कर जान, तो भी वचन न कहे निरवान ॥ १ ॥
बिना भारी कौन भार उठाये मुख थे वचन कह्यो न जायें ।
जब भया क्रुष्ण अवतार, रूकमणी हरण किया मुरार ॥ २ ॥
माधव पुर ब्याही रूकमणी, धवल मंगल गांवे सुहागनी ।
गाते गाते आया व्रज नाम तब पीछे भोम पडे भगवान ॥ ३ ॥
तब नैनों आंसु बहुत जल आए, काहूं पें न रहे पकडाए ।
सुख आनंद गयो कहूं चल अंग अन्तसकरण गए सब गल ॥ ४ ॥
तब सब किने पायो अचरज, यो लक्ष्मी जी को दिखाया व्रज ।
सोलह कला दोउ सरूप पूरन, ए आए है इन कारन ॥ ५ ॥

अर्थात : हे सुन्दरसाथ जी ! आप विचार कीजिए कि बैकुंठ के पार की चर्चा करने में बैकुंठ के स्वामी की जिह्वा सक्षम नहीं हो पाई। उन्होंने यह तो जान लिया कि वह वस्तु बहुत महत्वपूर्ण है तो भी उसके लिए निश्चित शब्द नहीं कह पाए।

जो स्वयं महान है वह ही तो उस भारी वस्तु का महत्व पहचान सकता है, भले ही वह मुख से कुछ स्वयं न कह पाए। जब श्री विष्णु भगवान जी का सोलाह कलाओं से युक्त पूर्न अवतार श्री क्रुष्ण जी के रूप में हुआ और उन्होंने विवाह के लिए श्री रूकमणी का हरण किया, तब परिणाम स्वरूप श्री रूकमणी जी माधव पुर में ब्याही गई। सुहागिन सखियां मंगल वधावे और विवाह के गीत गा रही थी। श्री क्रुष्ण जी की महिमा गाते हुए उन्होंने जब व्रज लीला का गायन किया तब श्री विष्णु भगवान अचेत (मुर्छित) से होकर गिर पडे। तब वहां बैठे समस्त लोगों के नेत्रों से आंसू बहने लगे। विवाह के आनंद में भंग सा पड गया और अंग इन्द्रियों सहित अन्त:करण विह्वल हो गया।

यह देखकर समस्त सम्बंधी जन आश्चर्य चकित रह गए, जबकि श्री रूकमणी जी के रूप में श्री लक्ष्मी जी ने इस संकेत को पकड लिया कि व्रज में ११ वर्ष और ५२ दिनों तक जो श्री क्रुष्ण जी थे उनके स्वरूप में विराजमान परम सत्ता का ध्यान, उनके स्वामी श्री बैकुंठ धाम में किया करते थे। श्रे रूकमणी जी एवं अपनी समपूर्ण सोलाह कलाओं सहित श्री विष्णु भगवान का अवतार इस परम लक्ष्य को लेकर हुआ।