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Thursday, June 12, 2014

"श्री क्रुष्ण प्रणामी" क्यों कहलाते हैं ???


आईये आज हम सब यह जानते हैं कि हम "श्री क्रुष्ण प्रणामी" क्यों कहलाते हैं ???

प्रणामी संप्रदाय के लोग परस्पर "प्रणाम" कहकर अभिवादन करते है। यह "प्रणाम" अभिवादन गुरूजनों एवं लघुजनों में विभक्ति की रेखा नहीं मानता हैं। लघुजनों के प्रणाम के प्रत्युत्तर में गुरूजन भी प्रणाम ही कहते हैं। इस संप्रदाय में प्रणाम शब्द भी एक प्रतीक के रूप में व्य्वह्यत है। परमधाम में जिनकी आत्माओं के नाम हैं, वे परनामी हैं। इस प्रणाम शब्द के प्रति प्रणामियों की अपनी मान्यताएं हैं। "प्रणमेतेती प्रणामी" अर्थात परात परब्रह्म को नमन करनेवाले ही प्रणामी कहलाते हैं। पुन: "प्रणाम" का सांकेतिक अर्थ "परनाम" होता है। परात्पर परब्रह्म का नाम लेनेवाले ही परनामी, प्रनामी अथवा प्रणामी कहलाते है। वे "पर" का अर्थ "परात्पर परब्रह्म" अथवा अक्षरातीत मानते हैं और यह परब्रह्म ही प्रणामियों के उपास्य देव हैं। इस प्रकार वे परस्पर परनाम अथवा प्रणाम का अभिवादन कर ब्रह्म प्रियाओं को उस परात्पर ब्रह्म का स्मरण कराते हैं। वस्तुत: "क्रुष्णपरनमितुं शीलयस्य स परनामी" अर्थात परब्रह्म को नमन करनेवाले ही परनामी कहलाते हैं। इस विचार से परस्पर प्रणाम अभिवादन करना प्रणामी धर्मावलम्बी अपना धर्म और कर्तव्य मानते हैं। उनकी एसी धारणा है कि श्री क्रुष्ण को प्रणाम करनेवाले पुन: जन्म नहीं लेते हैं। श्री क्रुष्ण को प्रणाम अर्थात नमन करने के कारण इस संप्रदाय वाले "श्री क्रुष्ण प्रणामी" भी कहलाते है। 

आपका सेवक
बंटी भावसार प्रणामी 
का प्रेम प्रणाम

Tuesday, June 3, 2014

॥ श्री क्रुष्ण - त्रिधा लीला का खुलासा ॥


श्री क्रुष्ण जी ने इस धरती पर लगभग १२५ वर्ष तक अलौकिक लीलाएं की और इन तीन स्वरूपों एवं त्रिधा लीला पर श्री शुकदेव जी ने संक्षिप्त में तथा संकादिक (ब्रह्मा जी के मानसिक पुत्र) तथा शिव जी ने भली दिक - दर्शन कराया है, जो कि निम्न स्लोकों में इस प्रकार संकलित है :- 

कंसम जघान बासुदेव:, श्रीक्रुष्णो नंद सुर्नतु ।
द्वारिकायम ययौ विष्नु, क्रुष्णांशाद्यौ जगत प्रभु ॥ १ ॥
साक्षात क्रुष्ण नित्य स्वांशेनैव विहारिण: । 
तस्यांशी हि मथुरायाम वासुदेवो जगदगुरू: ॥ २ ॥

अर्थात : कंस का वध करने वाले श्री वासुदेव थे, नंद नंदन कहलाने वाले श्री क्रुष्ण नहीं तथा द्वारिका धाम में जो लीला हुई वह विष्नु भगवान की है जो वासुदेव जगत - प्रभु के अंश है। इन दोनों स्वरूपों का वर्णन करते हुए देवी भागवत में उल्लेख हुआ है :- 

द्वि भुजं मुरली हसतं किशोर गोप वेषिणम ।
स्वेच्छामयम परंब्रह्म परिपूर्णतम स्वयम 
ब्रह्मा विष्णु शिवादै: च स्तुत: मुनिगणेनुत्तमम 
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणम प्रक्रुते: परम ॥

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द्वि भुजं मुरली हसतं किशोर गोप वेषिणम ।
स्वेच्छामयम परंब्रह्म परिपूर्णतम स्वयम 
ब्रह्मा विष्णु शिवादै: च स्तुत: मुनिगणेनुत्तमम 
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणम प्रक्रुते: परम ॥

अर्थात : यह द्वि भुजधारी, हाथ में मुरली लिए किशोर स्वरूप गो - लोक वासी श्री क्रुष्ण का है जिसका ध्यान ब्रह्मा विष्नु शिव आदि देव एवं महर्षि गण करते हैं और जो कि ब्रह्मानंद लीला युक्त है। यह स्वरूप प्रक्रुति से परे, निर्गुण निर्लिप्त है एवं साक्षी स्वरूप है। 

क्म्स का वध करने वाले गो -लोक वासी श्री क्रुष्ण हैं। इसकी पुष्टि हमें गर्ग संहिता एवं ब्रह्म वैवर्त पुराण में वणिति इस कथा से मिलती है कि एक दिन श्री क्रुष्ण गो लोक में ललिता सखी के यहां गए और बाहर खडे द्वार पाल दामा को आदेश दिया कि उनकी आज्ञा के बिना किसी को अंदर मत आने देना। थोडी देर बाद श्री राधा जी वहां आ पहुंची, परन्तु श्री दामा ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। राधा जी कहने लगी दाम तुम भली भांति जानते हो कि मैं श्री क्रुष्ण की आराधना का स्वरूप हूं अत: मुझे रधा कहते हैं, फिर भी तुम मुझे रोक रहे हो ? यदि तुमने हठ किया तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगी। परन्तु फिर भी दामा ने प्रवेश नहीं करने दिया। इस पर राधा जी ने शाप देते हुए कहा - तुम म्रुत्यु लोक में जो कर्म भूमि है, राक्षस की योनि में जन्म लोगे और श्री क्रुष्ण के हाथों तुम्हारा उद्दार होगा। दामा ने भी प्रतिक्रिया करते हुए राधा जी को शाप देते हुए कहा कि उसने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए रोका है अत: जिस प्रकार विरह वेदना से पीडित होकर तुमनए मुझे शाप दिया है उसी विरहवेदना में (म्रुत्यु लोक में अवतरण के पश्चात) तुम पीडित होती रहोगी और श्री क्रुष्ण से तुमहारा मिलन नहीं होगा। 

इस परस्पर अभिशाप के कारण जब श्री क्रुष्न जी ने कंस का वध किया तो दामा का उद्दार तो हो गया और जो ग्वाल वेष भूषा मुकुट आदि श्री क्रुष्ण जी ने वापिस देकर नंद बाबा को गोकुल भिजवाए थे, वही श्री राधा जी में समा गए। 

परिणाम स्वरूप श्री राधा जी जीवन भर श्री क्रुष्ण के विरह में तडपती रहीं परन्तु श्री क्रुष्ण जी से भेंट नहीं हुई। यह केवल श्री क्रुष्ण जी का स्वरूप भेद ही था जिसके कारण श्री राधा जी एवं उनकी सह अंगनाओं का श्री क्रुशःण जी से मिअलन नहीं हो पाया, अन्यथा गोकुल और मथुरा में केवल ५/६ कोस की दूरी थी जिसे पार करके श्री राधा और क्रुष्ण जी मिल सकते थे परन्तु एसा नहीं हुआ। 
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परिणाम स्वरूप श्री राधा जी जीवन भर श्री क्रुष्ण के विरह में तडपती रहीं परन्तु श्री क्रुष्ण जी से भेंट नहीं हुई। यह केवल श्री क्रुष्ण जी का स्वरूप भेद ही था जिसके कारण श्री राधा जी एवं उनकी सह अंगनाओं का श्री क्रुशःण जी से मिअलन नहीं हो पाया, अन्यथा गोकुल और मथुरा में केवल ५/६ कोस की दूरी थी जिसे पार करके श्री राधा और क्रुष्ण जी मिल सकते थे परन्तु एसा नहीं हुआ। व्रुहद सदा शिव संहिता में इस शंका का समाधान करते हुए शिव जी कहते है :-

श्रुतिभि: संस्तुतो रासे तुषु: कामवरं ददी ।
व्रुन्दावन मधुवनं तयो अभय्न्तरे विभु: ॥
ताभि: स्प्तं दिनं रेमे वियुज्य मथुरां गत: ।
चतुर्भि: दिवसै: ईश: कंसादीननयत परम ॥
ततो मधुपरी मध्ये भुवो भार जिहीर्षया ।
यदु चक्रव्रुतो विष्णु: उवास कतिचिद समा: ॥
ततस्तु द्वारिकां यात: ततो वैकुंठ आस्थित: ।
एवं गुह्यतर: प्रोक्त: क्रुष्ण लीला रस: त्रिधा ॥

अर्थात : जिस स्वरूप ने महारास के पश्चात सात दिन और चार दिन लीला क्रमश: व्रुन्दावन एवं मथुरा में की, उसने कंस वध कर के ग्वाल भेष नंद बाबा को लौटा दिया और स्वयं राजसी श्रुंगार किया। तत्पश्चात जो मथुरा एवं द्वारिका में ११२ वर्ष लीला की और भूमि का भार हलका किया, वह विष्णु भगवान की लीला थि। इस प्रकार उपरोक्त श्लोक की अन्तिम पंक्ति "एवं गुह्यतर: प्रोक्त: क्रुष्णलीला रस: त्रिधा:" की व्याख्या करते हुए कहा गय है।               ***********************************************************************

" क्रुष्ण क्रुष्ण सब कोई कहे, पर भेद न जाने कोए " ।
नाम एक विध है सही पर रूप तीन विध होए ॥
एक भेद बैकुंठ का दूसरा है गो - लोक ।
तीसरा धाम अखंड का कहत पुराण विवेक ॥


अर्थात : देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाला और जरासिंध के युद्ध काल से बैकुंठ गमन तक क्रुष्न लीला बैकुंठ वासी विष्णु भगवान की है। जिस बाल स्वरूप को वासुदेव जी मथुरा से गोकुल में ले गए और जो अक्रूर के साथ मथुरा गए और वहां पर हाथी तथा मुष्टिक आदि पहलवानों (मल्ल - राज) एवं कंस का वध किया वह गोलोक वासी श्री क्रुष्ण का स्वरूप है किन्तु जिस श्री क्रुष्ण स्वरूप ने ११ वर्ष ५२ दिन तक **नंद घर में प्रवेश करते हुए ब्रज में और तत्पश्चात रास मण्डल में रास लीला की, वह स्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की आवेश शक्ति से सम्पन्न था। इसकी पुष्टि हमें आलम दार संहिता में इस प्रकार मिलती है।
" तस्मात एकादस समा द्विपंचादस दिनानि क्रुष्णो 
व्रजातु संयातो लीलां क्रुत्वा स्व आलयम " ५६/११४

[**मूल सूरत अक्षर की जेह जिन छह्या देखूं प्रेम ।
कोई सूरत धनी को ले आवेश, नंद घर कियो प्रखेस ॥ (प्रका. ग्र.)]

अर्थात : श्री क्रुष्ण जी ने ११ वर्ष ५२ दिन तक ब्रज में दिव्य लीला कर तत्पश्चात अपने आवेश को लेकर अपने अखंड परमधाम को चले गए।
उपरोक्त तीनों स्वरूपों की लीला "प्रकाश ग्रन्थ" के अन्तिम प्रकरण "प्रगट वाणी" में सुचारू रूप से दर्शायी गई हैं जिसे क्रमश: क,ख,ग भागों में, संक्षिप्त में प्रस्तुत की जा रही है :- 
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दो भुजा स्वरूप जो स्याम, आतम अक्षर जोश धनी धाम ।
यह खेल देख्या सैयां सबन, हम खेले धनी भेले आनंद धन ॥
बाल चरित्र लीला जो वन जै विध सनेह किए सैयन ।
कई लिए प्रेम विलास जो सुख सो केते कहुं या मुख ॥

अर्थात : चतुर्भुज स्वरूप विष्णु भगवान के आवेश पर जब वसुदेव जी दो भुजा स्वरूप वाले बालक को लेकर नंद घर (गोकुल) पहुंचे उस स्वरूप का व्रुतांत इस प्रकार है :

पारब्रह्म एवं ब्रह्मात्माओं की प्रणय लीला देखने की इच्छा जो अक्षर ब्रह्म ने की थी, उसी सुरत ने अक्षरातीत (धाम धनी) का आवेश लेकर नंद के घर प्रवेश किया। अत: दो भुजा स्वरूप वाले श्याम जो गोकुल में श्री क्रुष्ण रूप से जाने गए उनमें अक्षर ब्रह्म की आतम और अक्षरातीत पार - ब्रह्म का आवेश था। इस संसार का खेल हम सब ब्रह्मा्त्माओं ने देखा एवं पार - ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप अक्षरातीत परमात्मा की आवेश शक्ति से सम्पन्न श्री क्रुष्ण जी ने गोकुल गाम तथा वन में मधुर लीलाएं करके अपनी आत्माओं को स्नेह प्रदान किया।

दिन अग्यारह ग्वाला भेस तिन पर नही धनी को आवेस ।
सात दिन गोकुल में रहे चार दिन मथुरा के कहे ॥
गज मल्ल कंस को कारज कियो उग्रसेन को टीका दियो ।
काराग्रह में दरसन दिए जिन आए छुडाए बंध थे तिन ॥
वसुदेव देवकी के लोहे भान उतारयो भेष कियो अस्नान ।
जबराज बागे को कियो सिंगार तब बल पराक्रम ना रहे लगार ॥

अर्थात : यहां तक गो -लोक वासी श्री क्रुष्ण की लीला है जिसने कंस वध किया और उग्रसेन को राज सिंहासन पर आसीन किया।
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AAPKA SEVAK 
BANTI KRISHNA PRANAMI.
PREM PRANAM.