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Friday, May 4, 2012

श्री क्रिष्ण महामंत्र " निजनाम "

श्री परिक्रमा 
श्री महामति जी कहते कि परमधाम के अन्दर मूल मिलावा की बारह हजार ब्रह्मात्माए वहा बैठे बैठे इस महामहिमामयी रात्रि (लैलतुलकद्र) के तीन खण्डो - ब्रज, रास और जागनी को देखने के लिए अपने प्रियतम अनादि अक्षरातीत श्री क्रिष्ण के साथ सुरता रूप में उतरी है:-

अब देखो अन्दर के, रुहें बैठी बारे हजार ।
उतरी लैलत कदर में, खेल देखन तीन तकरार ॥ (परिक्रमा ३३/१)
गिरो उतरी लैलत कदर में, कह्या तिनमें का है तूं ।
खोल दे पट अरस का, ज्यों आए मिले तुझकों ॥ (परिक्रमा  ३२/८)

ब्रज और रास के मंडल में ब्रह्मात्माए ही परमधाम के दिव्य प्रेम को लेकर इस जगत मे अपने पियतम श्री क्रिष्ण के साथ अवतीर्ण हुई है इन्होने ही जगत में परमधाम के प्रेम को ब्रज और रास लीला के खेल मे प्रकट किया अन्यथा इस संसार मे अभी तक कही भी परमधाम कि चिन्मय प्रेम लीला नही थी:-

प्रेम नाम दुनिया मिने, ब्रह्म स्रुष्टि ल्याई इत ।
ए प्रेम इनो जाहेर किया, ना तो प्रेम दुनी मे कित ॥
सुक व्यास कहे भागवत मे, प्रेम ना त्रिगुन पास । 
प्रेम बसत ब्रह्म स्रुष्ट मे, जो खेले सरुप ब्रज रास ॥ (परिक्रमा ३९/२,४)

अर्थात वेदव्यासजी और शुकदेव मुनि ने श्री मदभागवत मे स्पष्ट कहा है कि वह परमधाम का दिव्य प्रेम त्रिगुन स्वरुप - ब्रह्मा, विष्णु और महेश मे भी नही है । परमधाम का यह दिव्य प्रेम तो उन ब्रह्मस्रुष्टियो के ह्रद्य मे ही अन्तर्निहित है जिन्होने अपने प्रियतम श्री क्रिष्ण के साथ ब्रज और रास की ब्रह्म लीलाए की है । यही कारण है कि परमधाम के इस चिन्मय प्रेम को नवधाप्रकार की भक्ति से सर्वश्रेष्ठ कहा गया है - क्योंकि चौदह लोको के इस ब्रह्मांड मे भी वह दिव्य प्रेम प्राप्त नही है, जो गोपियो के पवित्र ह्रदय मे नित्य विधमान है। अतएव ब्रज और रास की प्रेममयी लीलाओ मे अवतरीत एसे प्रेम की सहज एवं स्वाभाविक आत्मानुभूति ब्रह्मात्माओ के अतिरिक्त अन्यत्र कैसे प्राप्त हो सकती है?

तो नवधा से न्यारा कह्या, चौदे भवन मे नाही । 
सो प्रेम कहा से पाइए, जो रेहेत गोपिका माहि ॥ (परिक्रमा ३९/५)
तीन ब्रह्मांड जो अब रचे, ब्रह्म स्रुष्ट के कारन ।
आप आए तिन वास्ते, सखी पूरे मनोरथ तिन ॥ (परिक्रमा २/१६)

धाम धनी अनादि अक्षरातीत श्री क्रिष्ण जी ने अपनी ब्रह्मांगनाओ के लिए ब्रज, रास और जागनी इन तीन ब्रह्मांडो की रचना करवाई एवं स्वयं श्री क्रिष्ण के स्वरुप मे प्रकट होकर ब्रह्मात्माओ के मनोरथ ब्रज, रास और जागनी के ब्रह्मांडो मे पुर्ण किए ।

प्रेम प्रणामजी सुंदरसाथजी 





 

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