Search

Tuesday, April 10, 2012

पूर्ण ब्रह्म

पूर्ण ब्रह्म

खोल न सकें पढ़ें अल्ला कलाम, सो खोले उमी सब मेहेर इमाम।
अव्वल एही बांधी सरत, खुले माएने जाहेर होसी कयामत
।।

बड़ा कयामत नामा -प्रकरण 5, चौपाई 31

जो लों ले ऊपर के माएने, तो लों कबूं न बूझा जाए।
सक छोड़ न होवे साफ दिल, जो पढ़े सौ साल ऊपर जुबांए।।

मारफत सागर -प्रकरण 11, चौपाई 34

इनमें लिखी इसारतें, निसान पाइए नजर बातन।
लिए ऊपर के माएने, क्यों पाइए कयामत दिन।।

मारफत सागर -प्रकरण 11, चौपाई 18

कागद में ऐसा लिख्या, आवेगा साहेब।
अंदर अर्थ खोलसी, सब जाहेर होसी तब।।

खुलासा -प्रकरण 14, चौपाई 4

इसारतें रमूजें अल्लाह की, सो लेकर हक इलम।
सो खोले रूहअल्लाह की, जिन दिल पर लिख्या बिना कलम।।

मारफत सागर -प्रकरण 11, चौपाई 35

प्यारे सुन्दरसाथ जी, अब से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व स्वामी जी के समय में “श्री कुलजम सरूप साहेब” का अवतरण हुआ व तब से लेकर अब तक वाणी का खूब पठन हुआ। हम सब सुन्दरसाथ ने यह समझा कि वाणी के अवतरण के साथ ही स्वामी जी ने वाणी का पूर्ण रूप से खुलासा कर दिया व वाणी के सब जाहेर व बातून माएने हमें खोल दिये अर्थात् हमें बेशक इलम प्राप्त हो गया या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हमारी आत्म जागृती (कयामत) हो गयी।

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि हम बेशक हो चुके हैं तो क्या हमें इश्क मिल गया है और हमसे माया छूट गई है जैसा कि वाणी की चौपाई कहती है

बेसक इलम आइया, पाई बेसक हक दिल बात।
हुए बेसक इस्क न आइया, सो क्यों कहिए हक जात।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 103

तोलों चले ना इस्क का, जोलों आड़ी पडी़ सक।
सो सक जब उड़ गई, तब क्यों न आवे इस्क हक।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 101

ए बातें सब असल की, जब याद दई तुम।
तब इस्क वाली रूहों को, क्यों न उडे़ तिलसम।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 81

आइये सुन्दरसाथ जी विचार करें कि जब हमें स्वामी जी के समय ही इश्क मिल गया था तो खेल अभी भी क्यों खड़ा है ? यदि थोड़ा गहराई में उतर कर विचार करेगें तो हमें समझ आयेगा कि असल में हम खेल की शुरूआत को ही खेल का अंत समझ कर बैठ गये जबकि............
रूहों के लिए खेल तो वाणी के अवतरण के साथ ही शुरू हुआ था क्योंकि वाणी तो केवल आई ही रूहों के लिये है बाकी सभी धर्म ग्रन्थों में तो केवल उनके आने के बारे में भविष्य वाणियां इशारतों में लिखी हुई थी जो स्वामी जी ने स्वंय खोल कर दुनियाँ को बता दिया था कि हक व उनकी रूहें इस संसार में आ चुके हैं।

अब इस वाणी में लिखे फुरमान पर चलकर हम सब रूहों को माया को पीठ देकर एक तन, एक मन व एकचित्त होकर वाणी में लिखी इशारतों में छिपे बातून माएनों के आधार पर अपने असल पिया की पहचान करनी थी क्योंकि यदि पिया जी उसी समय सारे गुझ खोल देते तो खेल क्या रहता क्योंकि खेल तो पिया को इस माया में पहचानने का ही था जैसा कि वाणी में लिखा है:-

मैं छिपोंगा तुमसे, तुम पाए न सको मुझ।
न पाओ तरफ मेरीय को, ऐसा खेल देखाऊं गुझ।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 39

ढूंढ़ोगे तुम मुझको, बोहोतक सहूर कर।
मेरा ठौर न पाओ या मुझे, क्योंए ना खुले नजर।।

खिलवत -प्रकरण 14, चौपाई 6

मैं रूह अपनी भेजोंगा, भेख लेसी तुम माफक।
देसी अर्स की निसानियां, पर तुम चीन्ह न सको हक।।

खिलवत -प्रकरण 11, चौपाई 26

ए बात मैं पेहेले कही, रूहें होसी फरामोस।
मेरे इलम बिना तुम कबहूं, आए न सको माहें होस।।

खिलवत -प्रकरण 15, चौपाई 7

ना इस्क ना अकल, ना सुध आप वतन।
ना सुध रेहेसी हक की, ए भूलोगे मूल तन।।

खिलवत -प्रकरण 15, चौपाई 19

वह हमारे बीच में हमारे जैसा ही तन धारण करके आये पर हम उनको पहचान न पाये। परन्तु अब आखिरत में वाणी में लिखी सरत पर अपने कौल को निभाने के लिए वह मोमिनों के दिलों को अर्श करके अपनी पहचान स्वंय दे रहे हैं। जैसा कि लिखा भी है:-

ए बातें हक के दिल की, निपट बारीक हैं सोए।
बिना इस्क दिए हक के, क्यों कर समझे कोए।।

खिलवत -प्रकरण 12, चौपाई 58

इस्क हक के दिल का, क्यों आवे माहें बूझ।
हक देवें तो इस्क आवहीं, ए हक के इस्क का गुझ।।

खिलवत -प्रकरण 12, चौपाई 59

जोस हाल और इस्क, ए आवे न फैल हाल बिन।
सो फैल हाल हक के, बिना बकसीस न पाया किन।।

खिलवत -प्रकरण 5, चौपाई 12

अब सुन्दरसाथ जी जब मेहेरों के सागर अपनी इश्क की बरसात कर रहे हैं तो हम सब सुन्दरसाथ भी अपने तन मन को उसमें डुबो कर अपनी प्रेम व इश्क मयी चाल के द्वारा उनको रिझा लें और दोनों ठौर का लाभ उठा लें क्योंकि:-

याही रब्दें इत आइयां, लेने पिउ का विरहा लज्जत।
सो पाए कदम क्यों छोड़हीं, जाकी असल हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 57

जब आखिर हक जाहेर सुनें, तब खिन में रूहें दौड़त।
सो क्यों रहें कदम पकड़े बिना, जाकी असल हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 62

अर्स मोहोल दिल को किया, आए बैठी हक सूरत।
ए अर्स मेहेर तो भई, जो असल हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 13

ब्रह्मसृष्ट मोमिन कहे, रूहें लेवे वेद कतेब विगत।
ए समझ चरन ग्रहें ब्रह्म के, जाकी ब्रह्म सों निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 11, चौपाई 38

पाए बिछुरे पिउ परदेस में, बीच हक न डारें हरकत।
ए करी इस्क परीछा वास्ते, पर ना छूटे हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 77

सुन्दरसाथ जी अब हमें जब हमारी निसबत के कारण हमें असल पिउ की पहचान मिल रही है तो हम क्यों ना पिउ जी के द्वारा ली गई इश्क की परीछा में सफल होकर दिखायें क्योंकि वाणी में पिया कहते है:-

इलम मेरा लेय के, निसंक दुनी से तोड़।
सोई भला इस्क, जो मुझ पे आवे दौड़।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 62

बेसक इलम सीख के, ऐसे खेल को पीठ दे।
देखो कौन आवे दौड़ती, आगूं इस्क मेरा ले।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 85

जब तुम भूले मुझ को, तब इस्क गया भुलाए।
अब नए सिर इस्क, देखो कौन लेय के धाए।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 86

प्यारे सुन्दरसाथ जी हम सब की समस्या अभी भी वही है कि इस माया के घोर अंधकार में असल पिउ (हक) की पहचान और वह पहचान तो वाणी के बातून मायनों में ही छिपी है जो उन्होंने आखिरत में ही अपनी पहचान देने के लिए जाहिर करने थे जिससे कि रूहों की फरामोशी दूर हो जाए और हमें असल की पहचान हो जाए। परन्तु इसके लिए हम सब सुन्दरसाथ को मिलकर सहूर करना पड़ेगा क्योंकि:-

सहूर बिना ए रेहेत है, तेहेकीक जानियो एह।
ए भी हुकम हक बोलावत, हक सहूरें आवत सनेह।।

सिनगार -प्रकरण 25, चौपाई 28

अब जो हिंमत हक देवहीं, तो उठ मिलिए हक सों धाए।
सब रूहें हक सहूर करें, तो जामें तबहीं देवें उड़ाए।।

सिनगार -प्रकरण 25, चौपाई 27

इत आँखें चाहिए हक इलम की, तो हक देखिए नैना बातन।
नैना बातून खुलें हक इलमें, ए सहूर है बीच मोमिन।।

सिनगार -प्रकरण 23, चौपाई 109

No comments:

Post a Comment