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Thursday, June 12, 2014

"श्री क्रुष्ण प्रणामी" क्यों कहलाते हैं ???


आईये आज हम सब यह जानते हैं कि हम "श्री क्रुष्ण प्रणामी" क्यों कहलाते हैं ???

प्रणामी संप्रदाय के लोग परस्पर "प्रणाम" कहकर अभिवादन करते है। यह "प्रणाम" अभिवादन गुरूजनों एवं लघुजनों में विभक्ति की रेखा नहीं मानता हैं। लघुजनों के प्रणाम के प्रत्युत्तर में गुरूजन भी प्रणाम ही कहते हैं। इस संप्रदाय में प्रणाम शब्द भी एक प्रतीक के रूप में व्य्वह्यत है। परमधाम में जिनकी आत्माओं के नाम हैं, वे परनामी हैं। इस प्रणाम शब्द के प्रति प्रणामियों की अपनी मान्यताएं हैं। "प्रणमेतेती प्रणामी" अर्थात परात परब्रह्म को नमन करनेवाले ही प्रणामी कहलाते हैं। पुन: "प्रणाम" का सांकेतिक अर्थ "परनाम" होता है। परात्पर परब्रह्म का नाम लेनेवाले ही परनामी, प्रनामी अथवा प्रणामी कहलाते है। वे "पर" का अर्थ "परात्पर परब्रह्म" अथवा अक्षरातीत मानते हैं और यह परब्रह्म ही प्रणामियों के उपास्य देव हैं। इस प्रकार वे परस्पर परनाम अथवा प्रणाम का अभिवादन कर ब्रह्म प्रियाओं को उस परात्पर ब्रह्म का स्मरण कराते हैं। वस्तुत: "क्रुष्णपरनमितुं शीलयस्य स परनामी" अर्थात परब्रह्म को नमन करनेवाले ही परनामी कहलाते हैं। इस विचार से परस्पर प्रणाम अभिवादन करना प्रणामी धर्मावलम्बी अपना धर्म और कर्तव्य मानते हैं। उनकी एसी धारणा है कि श्री क्रुष्ण को प्रणाम करनेवाले पुन: जन्म नहीं लेते हैं। श्री क्रुष्ण को प्रणाम अर्थात नमन करने के कारण इस संप्रदाय वाले "श्री क्रुष्ण प्रणामी" भी कहलाते है। 

आपका सेवक
बंटी भावसार प्रणामी 
का प्रेम प्रणाम

Tuesday, June 3, 2014

॥ श्री क्रुष्ण - त्रिधा लीला का खुलासा ॥


श्री क्रुष्ण जी ने इस धरती पर लगभग १२५ वर्ष तक अलौकिक लीलाएं की और इन तीन स्वरूपों एवं त्रिधा लीला पर श्री शुकदेव जी ने संक्षिप्त में तथा संकादिक (ब्रह्मा जी के मानसिक पुत्र) तथा शिव जी ने भली दिक - दर्शन कराया है, जो कि निम्न स्लोकों में इस प्रकार संकलित है :- 

कंसम जघान बासुदेव:, श्रीक्रुष्णो नंद सुर्नतु ।
द्वारिकायम ययौ विष्नु, क्रुष्णांशाद्यौ जगत प्रभु ॥ १ ॥
साक्षात क्रुष्ण नित्य स्वांशेनैव विहारिण: । 
तस्यांशी हि मथुरायाम वासुदेवो जगदगुरू: ॥ २ ॥

अर्थात : कंस का वध करने वाले श्री वासुदेव थे, नंद नंदन कहलाने वाले श्री क्रुष्ण नहीं तथा द्वारिका धाम में जो लीला हुई वह विष्नु भगवान की है जो वासुदेव जगत - प्रभु के अंश है। इन दोनों स्वरूपों का वर्णन करते हुए देवी भागवत में उल्लेख हुआ है :- 

द्वि भुजं मुरली हसतं किशोर गोप वेषिणम ।
स्वेच्छामयम परंब्रह्म परिपूर्णतम स्वयम 
ब्रह्मा विष्णु शिवादै: च स्तुत: मुनिगणेनुत्तमम 
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणम प्रक्रुते: परम ॥

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द्वि भुजं मुरली हसतं किशोर गोप वेषिणम ।
स्वेच्छामयम परंब्रह्म परिपूर्णतम स्वयम 
ब्रह्मा विष्णु शिवादै: च स्तुत: मुनिगणेनुत्तमम 
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणम प्रक्रुते: परम ॥

अर्थात : यह द्वि भुजधारी, हाथ में मुरली लिए किशोर स्वरूप गो - लोक वासी श्री क्रुष्ण का है जिसका ध्यान ब्रह्मा विष्नु शिव आदि देव एवं महर्षि गण करते हैं और जो कि ब्रह्मानंद लीला युक्त है। यह स्वरूप प्रक्रुति से परे, निर्गुण निर्लिप्त है एवं साक्षी स्वरूप है। 

क्म्स का वध करने वाले गो -लोक वासी श्री क्रुष्ण हैं। इसकी पुष्टि हमें गर्ग संहिता एवं ब्रह्म वैवर्त पुराण में वणिति इस कथा से मिलती है कि एक दिन श्री क्रुष्ण गो लोक में ललिता सखी के यहां गए और बाहर खडे द्वार पाल दामा को आदेश दिया कि उनकी आज्ञा के बिना किसी को अंदर मत आने देना। थोडी देर बाद श्री राधा जी वहां आ पहुंची, परन्तु श्री दामा ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। राधा जी कहने लगी दाम तुम भली भांति जानते हो कि मैं श्री क्रुष्ण की आराधना का स्वरूप हूं अत: मुझे रधा कहते हैं, फिर भी तुम मुझे रोक रहे हो ? यदि तुमने हठ किया तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगी। परन्तु फिर भी दामा ने प्रवेश नहीं करने दिया। इस पर राधा जी ने शाप देते हुए कहा - तुम म्रुत्यु लोक में जो कर्म भूमि है, राक्षस की योनि में जन्म लोगे और श्री क्रुष्ण के हाथों तुम्हारा उद्दार होगा। दामा ने भी प्रतिक्रिया करते हुए राधा जी को शाप देते हुए कहा कि उसने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए रोका है अत: जिस प्रकार विरह वेदना से पीडित होकर तुमनए मुझे शाप दिया है उसी विरहवेदना में (म्रुत्यु लोक में अवतरण के पश्चात) तुम पीडित होती रहोगी और श्री क्रुष्ण से तुमहारा मिलन नहीं होगा। 

इस परस्पर अभिशाप के कारण जब श्री क्रुष्न जी ने कंस का वध किया तो दामा का उद्दार तो हो गया और जो ग्वाल वेष भूषा मुकुट आदि श्री क्रुष्ण जी ने वापिस देकर नंद बाबा को गोकुल भिजवाए थे, वही श्री राधा जी में समा गए। 

परिणाम स्वरूप श्री राधा जी जीवन भर श्री क्रुष्ण के विरह में तडपती रहीं परन्तु श्री क्रुष्ण जी से भेंट नहीं हुई। यह केवल श्री क्रुष्ण जी का स्वरूप भेद ही था जिसके कारण श्री राधा जी एवं उनकी सह अंगनाओं का श्री क्रुशःण जी से मिअलन नहीं हो पाया, अन्यथा गोकुल और मथुरा में केवल ५/६ कोस की दूरी थी जिसे पार करके श्री राधा और क्रुष्ण जी मिल सकते थे परन्तु एसा नहीं हुआ। 
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परिणाम स्वरूप श्री राधा जी जीवन भर श्री क्रुष्ण के विरह में तडपती रहीं परन्तु श्री क्रुष्ण जी से भेंट नहीं हुई। यह केवल श्री क्रुष्ण जी का स्वरूप भेद ही था जिसके कारण श्री राधा जी एवं उनकी सह अंगनाओं का श्री क्रुशःण जी से मिअलन नहीं हो पाया, अन्यथा गोकुल और मथुरा में केवल ५/६ कोस की दूरी थी जिसे पार करके श्री राधा और क्रुष्ण जी मिल सकते थे परन्तु एसा नहीं हुआ। व्रुहद सदा शिव संहिता में इस शंका का समाधान करते हुए शिव जी कहते है :-

श्रुतिभि: संस्तुतो रासे तुषु: कामवरं ददी ।
व्रुन्दावन मधुवनं तयो अभय्न्तरे विभु: ॥
ताभि: स्प्तं दिनं रेमे वियुज्य मथुरां गत: ।
चतुर्भि: दिवसै: ईश: कंसादीननयत परम ॥
ततो मधुपरी मध्ये भुवो भार जिहीर्षया ।
यदु चक्रव्रुतो विष्णु: उवास कतिचिद समा: ॥
ततस्तु द्वारिकां यात: ततो वैकुंठ आस्थित: ।
एवं गुह्यतर: प्रोक्त: क्रुष्ण लीला रस: त्रिधा ॥

अर्थात : जिस स्वरूप ने महारास के पश्चात सात दिन और चार दिन लीला क्रमश: व्रुन्दावन एवं मथुरा में की, उसने कंस वध कर के ग्वाल भेष नंद बाबा को लौटा दिया और स्वयं राजसी श्रुंगार किया। तत्पश्चात जो मथुरा एवं द्वारिका में ११२ वर्ष लीला की और भूमि का भार हलका किया, वह विष्णु भगवान की लीला थि। इस प्रकार उपरोक्त श्लोक की अन्तिम पंक्ति "एवं गुह्यतर: प्रोक्त: क्रुष्णलीला रस: त्रिधा:" की व्याख्या करते हुए कहा गय है।               ***********************************************************************

" क्रुष्ण क्रुष्ण सब कोई कहे, पर भेद न जाने कोए " ।
नाम एक विध है सही पर रूप तीन विध होए ॥
एक भेद बैकुंठ का दूसरा है गो - लोक ।
तीसरा धाम अखंड का कहत पुराण विवेक ॥


अर्थात : देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाला और जरासिंध के युद्ध काल से बैकुंठ गमन तक क्रुष्न लीला बैकुंठ वासी विष्णु भगवान की है। जिस बाल स्वरूप को वासुदेव जी मथुरा से गोकुल में ले गए और जो अक्रूर के साथ मथुरा गए और वहां पर हाथी तथा मुष्टिक आदि पहलवानों (मल्ल - राज) एवं कंस का वध किया वह गोलोक वासी श्री क्रुष्ण का स्वरूप है किन्तु जिस श्री क्रुष्ण स्वरूप ने ११ वर्ष ५२ दिन तक **नंद घर में प्रवेश करते हुए ब्रज में और तत्पश्चात रास मण्डल में रास लीला की, वह स्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की आवेश शक्ति से सम्पन्न था। इसकी पुष्टि हमें आलम दार संहिता में इस प्रकार मिलती है।
" तस्मात एकादस समा द्विपंचादस दिनानि क्रुष्णो 
व्रजातु संयातो लीलां क्रुत्वा स्व आलयम " ५६/११४

[**मूल सूरत अक्षर की जेह जिन छह्या देखूं प्रेम ।
कोई सूरत धनी को ले आवेश, नंद घर कियो प्रखेस ॥ (प्रका. ग्र.)]

अर्थात : श्री क्रुष्ण जी ने ११ वर्ष ५२ दिन तक ब्रज में दिव्य लीला कर तत्पश्चात अपने आवेश को लेकर अपने अखंड परमधाम को चले गए।
उपरोक्त तीनों स्वरूपों की लीला "प्रकाश ग्रन्थ" के अन्तिम प्रकरण "प्रगट वाणी" में सुचारू रूप से दर्शायी गई हैं जिसे क्रमश: क,ख,ग भागों में, संक्षिप्त में प्रस्तुत की जा रही है :- 
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दो भुजा स्वरूप जो स्याम, आतम अक्षर जोश धनी धाम ।
यह खेल देख्या सैयां सबन, हम खेले धनी भेले आनंद धन ॥
बाल चरित्र लीला जो वन जै विध सनेह किए सैयन ।
कई लिए प्रेम विलास जो सुख सो केते कहुं या मुख ॥

अर्थात : चतुर्भुज स्वरूप विष्णु भगवान के आवेश पर जब वसुदेव जी दो भुजा स्वरूप वाले बालक को लेकर नंद घर (गोकुल) पहुंचे उस स्वरूप का व्रुतांत इस प्रकार है :

पारब्रह्म एवं ब्रह्मात्माओं की प्रणय लीला देखने की इच्छा जो अक्षर ब्रह्म ने की थी, उसी सुरत ने अक्षरातीत (धाम धनी) का आवेश लेकर नंद के घर प्रवेश किया। अत: दो भुजा स्वरूप वाले श्याम जो गोकुल में श्री क्रुष्ण रूप से जाने गए उनमें अक्षर ब्रह्म की आतम और अक्षरातीत पार - ब्रह्म का आवेश था। इस संसार का खेल हम सब ब्रह्मा्त्माओं ने देखा एवं पार - ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप अक्षरातीत परमात्मा की आवेश शक्ति से सम्पन्न श्री क्रुष्ण जी ने गोकुल गाम तथा वन में मधुर लीलाएं करके अपनी आत्माओं को स्नेह प्रदान किया।

दिन अग्यारह ग्वाला भेस तिन पर नही धनी को आवेस ।
सात दिन गोकुल में रहे चार दिन मथुरा के कहे ॥
गज मल्ल कंस को कारज कियो उग्रसेन को टीका दियो ।
काराग्रह में दरसन दिए जिन आए छुडाए बंध थे तिन ॥
वसुदेव देवकी के लोहे भान उतारयो भेष कियो अस्नान ।
जबराज बागे को कियो सिंगार तब बल पराक्रम ना रहे लगार ॥

अर्थात : यहां तक गो -लोक वासी श्री क्रुष्ण की लीला है जिसने कंस वध किया और उग्रसेन को राज सिंहासन पर आसीन किया।
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AAPKA SEVAK 
BANTI KRISHNA PRANAMI.
PREM PRANAM.

Friday, May 23, 2014

॥ (आत्मा एवं परमात्मा का संवाद) तथा तारतम का अवतरण ॥


॥ (आत्मा एवं परमात्मा का संवाद) तथा तारतम का अवतरण ॥

सुनियो वाणी सुहागनी, हुती जो अकथ अगम ।
सो बीतक कहूं तुमको, उड जासी सब भरम ॥ १ ॥
रास कह्या कुछ सुनके, अब तो मूल अंकूर ।
कलस होत सबन को नूर पर नूर सिर नूर ॥ २ ॥
कथियल तो कही सुनी, पर अकथ न एते दिन ।
सो तो अब जाहेर भई, जो आग्या थें उतपन ॥ ३ ॥
मासूके मोहे मिल के करी सो दिल दे गुझ ।
कहे तू दे पड उतर, जो मैं पूछत हूं तुझ ॥ ४ ॥
तू कौन आई इत क्यों कर कह्हं है तेरा वतन ।
नार तू कौन खसम की द्रढ कर कहो वचन ॥ ५ ॥ 
तू जागत है कि नींद में, करके देख विचार ।
विध सारो या की कहो इन जिमी के प्रकार ॥ ६ ॥

अर्थात : हे सुहागिन - ब्रह्मात्माओं ! आप अपने प्रियतम के उन अलौकिक वचनों को सुनो, जो आज तक कहे नहीं गए। इन वाणी वचनों में उस अखंड परम अद्वैत मंडल परमधाम की लीला का वर्णन है, जहां कोई नहीं पहुंच सका। आत्मा की इस गाथा अर्थात आत्माओं की यह बीतक - व्रुतांत सुनकर सारे भ्रम तथा संदेह मिट जाएंगे।

श्री इन्द्रावती जी कहती हैं कि रास का वर्णन तो उन्होंने सदगुरू जी के मुखारविंद से सुन्कर किया परन्तु यह तथ्य तो वह परमधाम के अंकूर अथवा मूल सम्बंध होने के नाते कह रही हैं। समस्त शास्त्र पुराणों के ज्ञान मन्दिर के शिखर पर यह जाग्रुत बुद्धि का ज्ञान (तारतम वाणी) कलसवत प्रतिष्ठित होगा। यह इस प्रकार न्याय संगत है कि शास्त्रों का सार अर्थात शास्त्र ज्ञान की ज्योति (नूर) श्री रास में समाहित है, ्वही रास का नूर "प्रकास वाणी" में प्रगटित हुआ। अब कलस वाणी में वह नूर कलस रूप में सुशोभित है। 

शास्त्र पुराणों की कथा एवं गाथाएं इस जगत में सुनने और सुनाने की परिपाटी तो चली आ रही है, परन्तु पूर्णब्रह्म अक्षरातीत की यह अकथ वाणी आज दिन तक न किसी ने कही और न ही सुनी। अब सतगुरू श्री धाम धनी की आज्ञा से यह अगम एवं अकथ वाणी श्री महामति द्वारा प्रगट हुई।

प्रियतम धनी मुझसे मिले और उन्होंने अपने ह्रदय के रहस्यमयी भेद मुझे बताए। तत्पश्चात उन्होंने कहा कि वह कुछ प्रश्न तुझसे पूछना चाहते हैं उसका उत्तर उन्हें दो।

प्रियतम धनी ने प्रश्न करते हुए पूछा तुम कौन हो ? इस जगत में क्यों आई हो ? तु्म्हारा मूल घर अथवा वतन कहां हैं ? तुम्हारे प्रियतम स्वामी कौन हैं, अर्थात तुम किस धनी (साहेब) की अर्धांगनी हो ? तुम इन प्रश्नों का उत्तर मुझे द्रढता पूरवक सोच विचार कर दो। 

फिर यह भी विचार कर देखो कि तुम स्वपनावस्था में हो या जाग्रुत अवस्था में ? इस सारे जगत की वास्तविक्ता क्या है ? यह जगत किस प्रकार का है और यह संसार तुम्हें कैसा लगता है ?


सुनो पिया अब मैं कहूं तुम पूछी सुध मण्डल ।
ए कहूं मैं क्यों कर छल बल वल अकल ॥ १ ॥
मैं न पहचानो आपको ना सुध अपनो घर ।
पीऊ पहचान भी नींद में मै जागत हूं या पर ॥ २ ॥
ए मोहोल रच्यो जो मंडप सो अटक रह्यो अंत्रिक्ष ।
कर कर फिकर कई थके, पर पाई न काहुं रीत ॥ ३ ॥
जल जिमी तेज वाय को अवकास कियों है इंड ।
चौदे तबक चरों तरफों परपंच खडा प्रचंड ॥ ४ ॥

अर्थात: प्रियतमधनी ! इस जगत के विषय में तथा अन्य प्रश्न (मैं कौन आई इत क्यों कर) जो आपने पूछे उसका वर्णन किस प्रकार करूं ? वस्तुत: यह मायावी जगत छलबल एवं कुटिलता से भरा हुआ है। विवेक एवं बुद्धि का पग पग पर हरण करने वाला है। न तो मुझे अपने घर (मूल वतन) की खबर है और न ही मैं आपको तथा अपने आपको पहचानती हूं। केवल मैं इतना जनती हूं कि आप मेरे प्रियतम धनी हैं। यह तथ्य भी नींद की सी अवस्था में ही कह रही हूं क्योंकि आपके स्वरूप की पूरी पहचान नहीं है। अपने जाग्रुत होने का अभी मुझे इतना ही अहसास है।

इस जगत में जहां मैं आज हूं जिस रूप में हूं, की रचना बडी विचित्र है अर्थात इस जगत का जो मंडप रचा गया है, उसके न कोई थंभ (खम्भे) हैं न ही दीवर है और न कोई संध (जोड) है। यह अन्तरिक्ष (अधर) में लटका घूम रह है। इसके मूल की खोज करते रुशी मुनि थक गए, परन्तु किसी ने इसका पार (थाह) नहीं पाया।

पां च तत्व - प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से मिलकर इस चौदे लोक ब्रह्मांड की रचना हुई। इस प्रकार इस ब्रह्मांड की दसों दिशाओं में प्रचंड प्रपंच का ही विस्तार दिखाई देता है।

उपरोक्त "प्रचंड प्रपंच" का अभिप्राय यह है कि साधारणत: यह संसार ऊपर से सीधा सरल एवं स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु इसका फैलाव (विस्तार) बिना मूल (आधार) के है। सुक्ष्म रूप से इस तथ्य पर विचार करने पर इसकी विचित्रता प्रगट हो जाती है। वस्तुत: इसके ऊपर शून्य और नीचे जल है। यह अंतरिक्ष (अधर) में लटक रहा है। इसका निर्माण पांच तत्व जैसा कि ऊपर कहा गया है, से हुआ है। यदि इन पांचो तत्व प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश को अअलग कर देखा जाए तो उनका अन्त ही नहीं परन्तु जब इन पाम्चो को एकत्रित करके देखा जाए तो यह संसार रचा हुआ तथा टिका हुआ द्रष्टि गोचर होता है, जबकि इन पांचो तत्वों में एक तत्व भी स्थिर नहीं अत: यह "प्रचंड प्रपंच" है। 

॥ जीव को प्रबोध ॥

सुन मेरे जीव कहूं व्रुतंत, तो को एक देऊ द्रष्टांत ।
सो तू सुनियो एके चित, तो सो कहत हूं कर के हित ॥ १ ॥
परिक्षित यों पूछ्यो प्रश्न, शुक जी मोको कहो वचन ।
चौदे भवन में बडा जोए, मो को उत्तर दीजे सोय ॥ २ ॥
तब शुक जी यो बोले प्रमाण ली जो वचन उत्तम कर जान ।
चौदे भवन में बडा सोए बडी मत का धनी जोए ॥ ३ ॥
भी राजाएं पूछ्या यों बडी मत सो जानिए क्यों ।
बडी मत को कहूं इचार लीजो राजा सबको सार ॥ ४ ॥

अर्थात : हे मेरे जीव ! तुझे द्रष्टांत देकर एक व्रुतान्त कहती हूं। तुम उसे दत्त चित्त होकर श्रवण करना । मुझे तुझ से स्नेह है, इसलिए यह बात कह रही हूं। 

श्रीमद भागवत की कथा सुनते हुए राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव मुनि से यह प्रश्न पूछा कि मुनि जी मुझे इस बात का उत्तर दीजिए कि चौदाह लोकों में सबसे बडा कौन है ?

तब श्री शुकदेव मुनि ने प्रमाण देकर कहा कि मेरे इन वचनों को उत्तम समझकर ग्रहण करना। चौदाह लोकों में वही व्यक्ति बडा है जो महान बुद्धि का धनी अथवा मालिक है।

फिर राजा परीक्षित ने पूछा कि हे मुनि जी ! यह कैसे जाना जए कि अमुक व्यक्ति बडी बुद्धि वाला है ? शुकदेव जी ने कहा कि हे परीक्षित ! सर्वत: विचार करते हुए मेरा जो विवेक है उसे कहता हूं और तुम उस सार को ग्रहण करो। 


बडी मत सो कहिए ताए, श्री क्रुष्ण जी सो प्रेम उपजाए ।
मत की मत है ए सार, और मत को ्कहुं विचार ॥ १ ॥
बिना श्री क्रुष्ण जी जेती मत सो तू जानियो सब कुमत ।
कुमत सो कहिए किनको सबसे बुरी जानिए तिन को ॥ २ ॥
श्री क्रुष्ण जी सो प्रेम करे बडी मत, सो पहुंचावे अखंड घर जित ।
ताए आडो न आवे भव सागर सो अखंड सुख पावे निज घर ॥ ३ ॥
ए सुख या मुख कह्यो न जाए या को अनुभवी जाने ताए ।
ए कुमत कहिए तिन से कहा होए अंधकूप में पडिया सोए ॥ ४ ॥

अर्थात : हे राजन ! इस संसार में बडी बुद्धि वाला उसे ही कहा जा सकता है, जो मन में श्री क्रुष्ण जी के लिए प्रेम उ्त्पन्न करे। सबसे उत्तम विवेक पूर्ण विचार एवं सबसे बडी बुद्धि का सार यही है।

श्री क्रुष्ण जी के अतिरिक्त और किसी ओर ले जाने वाली बुद्धि के जितने भी विचार हैं उन सबको तुम कुमति ही जानो। कुमति अथवा दुर्मति कौन है, उसे क्या कहना चाहिए ? उस बुद्धि को हलकट - निन्दक विचार वाली बुद्धि कहना चाहिए।

बडी मत - महान बुद्धि श्री क्रुष्ण जी से प्रेम करके जीवात्मा को अखंड घर में पहुंचा देती है। भव सागर उसकी राह में बाधा नहीं बनता। वह नित्य ही अपने अखंड घर (निज घर) के सत - सुख अनुभव करती है।

परमधाम के सत - सुखों का वर्णन इस मुख से नहीं हो सकता। इन सुखों को अनुभवी ही जानते हैं। इसके विपरीत जो कुमति अथवा ददुर्मति कहा गया है, उसके वशीभूत होने से क्या होता है ? एसी बुद्धि वाला अंधकूप नाम से नरक में पडा रहता है। 

॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥ 1

॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥


तुम साथ मेरे सिरदार एह द्रष्टांत ली जो विचार ।

रोसन वचन करूं प्रकास सुक जी की साख ली जो विश्वास ॥ १ ॥
पीऊ पहचान टालो अंतर, पर आतम अपनी देखो घर ।
इन घर की कहां कहूं बात, बचन विचार देखो साख्यात ॥ २ ॥
अब जाहेर ली जो द्रष्टांत, जीव जगाए करो एकांत ।
चौदे भवन का कहिए, धनी लीला करे बैकुंठ में धनी ॥ ३ ॥
लख्मीजी सेवें दिन रात, सोए कहूं तुम को विख्यात ।
जो चाहे आप हेत घर, सो सेवे श्री परमेश्वर ॥ ४ ॥
ब्रह्मादिक नारद कै देव, कै सुर नर करें एह सेव ।
ब्रह्मांड विषे केते लऊं नाम, सब कोई सेवे श्री भगवान ॥ ५ ॥

अर्थात : हे मेरे शिरोमणि सुन्दर साथ जी ! मैं जिन शब्दों को द्रश्टांत के रूप में आपको सुना रहा हुं उन पर आप भली भांति विचार करो। श्री शुकदेव मुनि जी की श्रीमद भागवत इस द्रष्टांत की साक्षी है।

अपने प्रियतम पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत को पहचान कर उनसे अपना अंतर (दूरी) मिटा लो। अपने मूल घर में अपनी परात्म को देखो। परमधाम की मैं क्या बात करूं ? इन वचनों पर विचार करके आप स्वयं उसे साक्षात देखो। 

इस स्पष्ट द्रष्टांत द्वारा जीव को जाग्रुत करके एकाग्र करो। चौदाह लोकों द्वारा पूजित नश्वर जगत के अधिपति श्री विष्णु भगवान बैकुंठ धाम में अनेक प्रकार की लीलाएं करते हैं। 

श्री लक्ष्मी जी उनकी दिन रात सेवा करती हैं। हे सुन्दरसाथ जी ! मैं आपको उनकी एक लीला विस्तार से कहता हूं। बैकुंठ से उत्पन्न उस घर के जीव जो अपना हित या उनके धाम जाना चाहते हैं वे श्री विष्णु भगवान को ही परमेश्वर जानकर उनकी सेवा करते हैं। 

ब्रह्मा, शिव, नार्द आदि कई देवी - देवता और मनुष्य उनकी वन्दना करते हैं। इस ब्रह्मांड में कितने नाम गिनाऊं, जो सब श्री भागवत जी की उपासना करते हैं।


॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥

सुनो लक्ष्मी जी कहूं तु्मको पेहेले सिवें पूछ्या हमको ।
इन लीला की खबर मुझे नांहे, सो क्यों कहूं मैं इन जुंबाए ॥ १ ॥
एह वचन जिन करो उचार, ना तो दुख होसी अपार ।
और इत का जो करो प्रश्न, सो चौदे लोक की करूं रोसन ॥ २ ॥
लक्ष्मी जी वडो पयो दुख कहे न सके, कलपे अति मुख ।
मो सो तो राख्यो अंतर, अब रहूंगी में क्यों कर ॥ ३ ॥
नौनो आसूं बहु विध झरे फेर फेर रमा विनती करे ।
धनी ए अंतर सहयो न जाए, जीव मेरा मांहे कलपाए ॥ ४ ॥
लक्ष्मी जी कहें सुनो राज, मेरे आतम अंग उअपजी ए दाझ ।
नही दोष तुमारा धनी, अप्रापत मेरी है घनी ॥ ५ ॥
अब आज्ञा मागूं मेरे धनी करूं तपस्या देह कसनी ।
अब शरीर मेरा क्यों रहे, ए अगनी जीव न सहे ॥ ६ ॥

अर्थात : हे लक्ष्मी जी ! मैं तुम्हें बताऊं कि आपसे पहले श्री शिव जी ने भी हमसे यह प्रश्न किया था। जिस परम सत्ता की लीला मुझे भी ज्ञान नहीं है, उसे मैं अपनी जुबान से कैसे वर्णन कर सकता हूं ?

यह प्रश्न मुझसे मत पूछो, अन्यथा तुम्हें अति अधिक दुख होगा। इसके अतिरिक्त यदि कोई और प्रश्न करो तो चौदाह लोकों की समस्त बातें यहीं प्रगट कर दूंगा।

यह सुनकर श्री लक्ष्मी जी अति दुखित हुई। वह इतनी क्षुब्ध हुई कि उनके मुख से कुछ कहा न गया। यह सोचकर मेरे स्वामी मुझसे भेद छिपाने लगे हैं, उन्होंने (लक्ष्मी जी) मन में सोचा कि भला अब मैं क्यों जीवित रहूं ?

उनके नेत्रों से झर - झर आंसू बहने लगे। श्री रमा - लक्ष्मी जी बार - बार विनंती करने लगी कि हे प्रियतम ! मुझसे, आपके मन की यह दूरी (तथ्य छिपाने की क्रिया) सहन नहीं होती। मेरी अन्तर आत्मा बहुत दुखी हो रही है।

श्री लक्ष्मी जी अपनी वार्ता को दोहराते हुए कहने लगी हे नाथ ! मेरी आत्मा और शरीर इस अगिन से जल रहे हैं। इसमें सम्भवत: आपका कोई दोष नहीं है, मैं ही इस ज्ञान के प्रति सर्वथा अयोग्य हूं।

अब मेरा शरीर जीवित क्यों कर रहेगा ? मेरा चित्त इस अग्नि को कैसे सहेगा ? मैं आपसे आज्ञा मांगती हूं कि मैं कठोर तपस्या करके अपने आपको उस ज्ञान को ग्रहण करने योग्य बनाऊं। 



॥ लक्ष्मीजी नुं द्रष्टांत ॥

ए तो है एसा समरथ, सेवक के सब सारे अरथ ।
अब तुमया को देखो ज्ञान, बडी मत का धनी भगवान ॥ १ ॥
एक समय बैठे धर ध्यान बिसरी सुध सरीर की सान ।
ए हमेसा करें चितवन, अंदर काहुं न लखावें किन ॥ २ ॥
ध्यान जोर एक समय भयो लागयो सनेह ढांप्यो न रह्यो ।
लख्मी जी आए तिन समे, मन अचरज भए विस्मए ॥ ३ ॥
आए लख्मी जी ठाढे रहे, भगवान जी तब जाग्रुत भए ।
करी विनती लख्मी जी तांहे, तुम बिन हम और कोई सुन्या नांहे ॥ ४ ॥
किन का तुम धरत हो ध्यान सो मो को कहे श्री भगवान ।
मेरे मन में भयो संदेह, कहो समझाओ मो की एह ॥ ५ ॥
कौन सरूप बसे किन ठाम कैसी सोभा कहो क्या नाम ।
ए लीला सुनो श्रवण फेर फेर के लागूं चरण ॥ ६ ॥

अर्थात : श्री विष्णु भगवान इतने समर्थ हैं कि सेवकों की सभी कामनाएं पूर्ण करते हैं। इतनी बडी बुद्धी के स्वामी श्री भगवान जी के ज्ञान की सीमा का अवलोकन कीजिए।

श्री विष्णु भगवान एक समय ध्यान करने के लिए बैठे। तब उन्हों अपने शरीर की भी सुधि न रही। यों तो वह सदैव ही चित्तवन करते हैं, और कभी किसी को पता नहीं लगने देते।

एक बार उनका ध्यान इतना गहरा लग गया कि उनका अपने स्वामी के प्रेति स्नेह छिपा न रहा। उसी समय श्री लक्ष्मी जी वहां आ पहुंची। अपने स्वामी को ध्यान मग्न देख उन्हें बडा आश्चर्य हुआ।

श्री लक्ष्मी जी वहां आकर खडी रही। जब भगवान जी अपनी समाधि से जागे तब श्री लक्ष्मी जी ने विनय पूर्वक कहा कि ये तो हमने कभी नहीं सुना कि आपके बिना कोई और भी पूज्य है।

"हे भगवान ! आप मुझे बताइए कि आप किन का ध्यान कर रहे थे ? मेरे मन में यह बात संदेह उत्पन्न कर रही है। आप मुझे भली भांति समझा कर कहिए। जिनका आप ध्यान कर रहे थे, उनका स्वरूप कैसा है ? और वे कहां विराजमान रहते है ? उनकी शोभा कैसी है और नाम क्या है ? मैं आपके चरणों में बैठकर श्रवण करना चाहती हूं। मुझे यह लीला सुनाइये। 


एता रोस तुम ना धरो, लक्ष्मी जी पर दया करो ।
तुम स्वामी बडे दयाल, लक्ष्मी जी पावे दुख बाल ॥ १ ॥
चलो प्रभु जी जाइए तित बुलाए लक्ष्मी जी आइए इत ।
तब दया कर ए भगवान लक्ष्मी जी बैठे जिन ठाम ॥ २ ॥
लखमी जी परनाम कर आए श्री भगवान जी सन्मुख बुलाए ।
लखमी जी चलो जाइए घरे, तब फेर रमा वानी उचरे ॥ ३ ॥
धनी मेरे कहो वाही वचन जीव बहुत दुख पावे मन ।
जो तप करो कल्पांत एकईस, तो भी जुबां ना वले कहे जगदीस ॥ ४ ॥
देखलाऊं मैं चेहेन कर तब लीजो तुम हिरदे धर ।
तब ब्रह्मा खीर सागर दोए, लखमी जी को विनती होए ॥ ५ ॥
लखमी जी उठो तत्काल दया करी स्वामी दयाल ।
अब जिन तुम हठ करो, आनंद अन्त:करन में धरो ॥ ६ ॥
तब लखमी जी लागे चरने यों बुलाए ल्याए आनंद अति घने ।
तब ब्रह्मा खीर सागर सुख पाए, फिरे दोऊ आए आप अपने घरे ॥ ७ ॥

अर्थात : हे प्रभु ! आप बडे दयालु हो, इतना रोष मत किजीए। श्री लक्ष्मी जी कोमल बाल स्वरूप दु:ख पा रही हैं।

चलिए प्रभु ! वहां चलकर लखमी जी को यहां बुला लायें। तब क्रुपा करके श्री भगवान जी उस स्थान पर आए जहां श्री लखमी जी बैठी तपस्या कर रही थीं।

श्री लक्ष्मी जी ने उन्हें प्रणाम किया। तब श्री भगवान जी ने श्री लख्मी जी से सन्मुख होकर कहा कि चलो अब अपने घर चलें। तब रमा - श्री लखमी जी ने पुन: वही शब्द कहे ।

हे स्वामि ! वही (रहस्य) बताओ, जिसके लिए मेरा मन इतना दुखी हो रहा है। तब श्री भगवान प्रतुत्तर देते हुए बोले कि आप चाहे एक बीस कल्पांत तक तपस्या करें तो भी मेरी जुबान में सामर्थ्य नहीं होगा कि उन वचनों को कह सके। इतना अवश्य है, कि मैं तुम्हें किसी भी संकेत द्वारा वह तथ्य समझ दूंगा, तब तुम उसे मन में धारण कर लेना। यह सुनकर ब्रह्माजी और खीर सागर श्री लक्ष्मी जी से विनय पूर्वक कहने लगे:-

लक्ष्मी जी ! अब आप तत्काल बिना कुछ बहाना किए उठो। क्रुपालु भगवान जी ने आप पर पूरी अनुकम्पा की है अत: सनतुष्ट होकर अपनी अन्तरात्मा में आनंद का अनुभव किजिए।

तब श्री लक्ष्मी जी ने भगवान जी के चरण स्पर्श किए। इस प्रकार श्री बैकुंठ नाथ लक्ष्मी जी को आनंद पूर्वक घर में ले आए और प्रसन्न चित्त होकर ब्रह्मा जी एवं क्षीर सागर दोनों अपने गन्तव्य की ओर चले गए। 



भगवान जी बोले तिन लाओ, लक्ष्मी जी बेर जिन ल्याओ ।
तब कल्पया जीव दुख अनंत कर, उपज्यो वैराग लियो हिरदे घर ॥ १ ॥
इन समे विरह कियो अति जोर, बडो दुख पाए कियो अति सोर ।
एक ठौर बैठे जाए दमे देह, भगवान जी सों पूर्ण सनेह ॥ २ ॥
सीत धूप वरषा न गिने करे तपस्या जोर अति घणे ।
सनेह धर बैठे एकान्त एते सात भए कल्पांत ॥३ ॥
तब ब्रह्मा जी खीर सागर, आए विष्णु बैकुंठ घर ।
ए प्रभु जी ए क्या उत्पात लक्ष्मी जी तप करे कल्पांत सात ॥४ ॥

अर्थात : श्री भगवान जी ने तत्काल कहा कि हे लक्ष्मी जी ! इस सुभ कार्य में देरी मत करो। तब लक्ष्मी जी का मन और उद्विग्न हो गया क्योंकि उन्हें आशा थी कि स्वामी उसे वियोग नहीं देंगे। श्री भगवान जी के यह वचन सुनकर लक्ष्मी जी का जीव व्याकुल हो उठा और उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ।

इस समय मन में विरह की गहन्तम पीडा हुई। इतना दुख हुआ कि वह रह रह का विलाप करने लगी और एक अलग स्थान पर बैठकर अपने शरीर को कठोर साधनाओं में तपाने लगी। इतनी मानसिक वेदना होने पर भी श्री लक्ष्मी जी का स्नेह अपने स्वामी के प्रति पूर्ण एवं अक्षय रहा।

सर्दी, गर्मी तथा वर्षा की परवाह न करते हुए, उन्होंने बडी कठोर तपस्या आरम्भ कर दी। प्रियतम के स्नेह का बल, मन में धारण करके सात कल्पांत तक एकान्त में बैठे तपस्या करती रही।

तब ब्रह्माजी और खीर सागर, श्री विष्णु जी के बैकुंठ धाम में आए और बोले हे प्रभु ! अचानक यह कैसा उत्पात हो रहा है ? श्री लक्स्मी जी सात कल्पांत से तपस्या कर रही है।



अब ए विचार तुम देखो साथ, ना वली जुबां बैकुंठ नाथ ।
ग्रही वसत भारी कर जान, तो भी वचन न कहे निरवान ॥ १ ॥
बिना भारी कौन भार उठाये मुख थे वचन कह्यो न जायें ।
जब भया क्रुष्ण अवतार, रूकमणी हरण किया मुरार ॥ २ ॥
माधव पुर ब्याही रूकमणी, धवल मंगल गांवे सुहागनी ।
गाते गाते आया व्रज नाम तब पीछे भोम पडे भगवान ॥ ३ ॥
तब नैनों आंसु बहुत जल आए, काहूं पें न रहे पकडाए ।
सुख आनंद गयो कहूं चल अंग अन्तसकरण गए सब गल ॥ ४ ॥
तब सब किने पायो अचरज, यो लक्ष्मी जी को दिखाया व्रज ।
सोलह कला दोउ सरूप पूरन, ए आए है इन कारन ॥ ५ ॥

अर्थात : हे सुन्दरसाथ जी ! आप विचार कीजिए कि बैकुंठ के पार की चर्चा करने में बैकुंठ के स्वामी की जिह्वा सक्षम नहीं हो पाई। उन्होंने यह तो जान लिया कि वह वस्तु बहुत महत्वपूर्ण है तो भी उसके लिए निश्चित शब्द नहीं कह पाए।

जो स्वयं महान है वह ही तो उस भारी वस्तु का महत्व पहचान सकता है, भले ही वह मुख से कुछ स्वयं न कह पाए। जब श्री विष्णु भगवान जी का सोलाह कलाओं से युक्त पूर्न अवतार श्री क्रुष्ण जी के रूप में हुआ और उन्होंने विवाह के लिए श्री रूकमणी का हरण किया, तब परिणाम स्वरूप श्री रूकमणी जी माधव पुर में ब्याही गई। सुहागिन सखियां मंगल वधावे और विवाह के गीत गा रही थी। श्री क्रुष्ण जी की महिमा गाते हुए उन्होंने जब व्रज लीला का गायन किया तब श्री विष्णु भगवान अचेत (मुर्छित) से होकर गिर पडे। तब वहां बैठे समस्त लोगों के नेत्रों से आंसू बहने लगे। विवाह के आनंद में भंग सा पड गया और अंग इन्द्रियों सहित अन्त:करण विह्वल हो गया।

यह देखकर समस्त सम्बंधी जन आश्चर्य चकित रह गए, जबकि श्री रूकमणी जी के रूप में श्री लक्ष्मी जी ने इस संकेत को पकड लिया कि व्रज में ११ वर्ष और ५२ दिनों तक जो श्री क्रुष्ण जी थे उनके स्वरूप में विराजमान परम सत्ता का ध्यान, उनके स्वामी श्री बैकुंठ धाम में किया करते थे। श्रे रूकमणी जी एवं अपनी समपूर्ण सोलाह कलाओं सहित श्री विष्णु भगवान का अवतार इस परम लक्ष्य को लेकर हुआ। 



Saturday, June 9, 2012

॥ श्री अरजी छोटी ॥

निसदिन ग्रहीये प्रेमसों, श्री जुगल स्वरुप के चरण ।
निर्मल होना याहीसों, और धाम बरनन ॥
इन विध नर्कसे छुटिये, और उपाय कोई नहीं ।
भजन बिना सब नर्क है, पचि पचि मरिये मांही ॥
एक आतम धनी पहेचानिये, निर्मल एही उपाये ।
श्री महामत कहे समझ धनीके, ग्रहिये सों प्रेमें पाये ॥
श्री महामत कहे महेबुबजी, अब दिजे पट उडाये ।
नैना खोलके अंकभर, दुल्हा लिजे कंठ लगाय ॥
कंठ लगाये कंठसु, किजे हांस विलास ।
वारणे जाय श्री इन्द्रावती, पियाजी राखियों कदमों की पास ॥
सदा सुख दाता श्री धाम धनी, काहा कहुं ए बात ।
श्री महामति जुगल स्वरुप पर, अंगना बल बल जात ॥
गुण अवगुण सबके माफ किये, किये पिछले जौन ।
साहेब सों सनमुख सदा, साधी साचो तौन ॥
अवगुण काढे गुण ग्रहे, हारसें होय जीत ।
साहब सौ सनमुख सदा, ब्रह्म स्रुष्टि ए रीत ॥
ए सुख शब्दातीत के, क्यों कर आवे जुबान ।
बालेंसे बुढापन लगे, मेरे शीरपर खडे सुभान ॥
नजरसें नां काढी मुझे, अवलसें आज दिन ।
क्यों कहुं मेहेर मेहेबुबकी, जो करत उपर मोमिन ॥
क्यों मेहेर मुज पर भई, जो दिलमें थी एति सक ।
में जानी मोज मेहेबुबकी, वह देत आप माफक ॥
कोई देत कसाला तुमको, तुम भला चाहियों तिन ।
सुरत धामकी ना छोडियों, सुरत पीछे फिराईयों जीन ॥
हमतो हाथ हुकम के, हक्के हाथ हुकम ।
इत ह्मारा क्या चले, ज्यों जानो त्यों करो खसम ॥
चाहो तो राजी रखो, या चाहो तो दलगिर ।
या पाक करों हादी पना, या बेठावों मांहे तकसीर ॥
पीयाजी तुम तुमारे गुण ना छोडे, मैं तो बोहोत करी दुष्टाई ।
मैं तो करम किये अती निचे, पर तुम राखी मूल सगाई ॥
श्री धनीजी के गुण की मैं क्यों कहो, इन अवगुण पर एते गुण ।
श्री महामत कहे इन दुल्हें पर, मैं वारी वारी दुलहीन ॥
पीयाजी तुमारी साहेबी, अपनी राखों आप ।
इश्क दिजे मोहें आपनों, मैं तासों करुं मिलाप ॥
तुम दुल्हां मैं दुल्हीन, और ना जानु बात ।
इश्क सों सेवा करुं, सबो अंगो साक्षात ॥
मेरे दिलकी देखीयों, दरदना क्छु इश्क ।
ना सेवा ना बंदगी, ए हमारी बितक ॥
अब हुकम धणीके, सब बीध दै पोहोंचाये ।
चेत सको सो चेतियों, लिजो आतम जगायें ॥
अब दिल दलगीर छोडदो, होत तेरा नुकसान ।
जानतहों गोविन्द भेदा, याके पिठ दीजे आसान ॥
अब भली बुरी दुनिकी, जीन लेवो चित ल्याये ।
सुरत पक्की करों धाम की, पर आतम धणी संग मिलाये ॥
सुख दु:ख डारों आगमें, ए जो जुथी माया के ।
पिंड ना देखों ब्रह्मांड, राखो सुरत धाम धणी जे ॥
अब जो कोई होय ब्रह्म स्रुष्टि की, सो लीजो बचन ए मान ।
अपने पोहोरे जागीये, समैया पोहोंच्या आन ॥
सुता हो, सो जागीयों, जागा बैठा होय ।
बैठा ठाढा होईयों, ठाढा पाऊं भर आगे सोय ॥
युं तैयारी किजीयों, आगे करनी हे दौड ।
सब अंगो इश्क लेयके, निकसों ब्रह्मांड फोड ॥
श्री महामति कहे पिछे न देखीयें, न किसी की परवाहें ।
एक धाम हिरदेमें लेयकें, उदाय दीजीये अरवाय ॥
श्री महामत कहे अरवाहें अर्ससे, जो कोई आई होय उतर ।
सो इन स्वरुप के चरण लेयके, चलिये अपने घर ॥
पिया तुमहों तैसी कीजीयों, मैं अर्ज करुं मेरे पिऊंजी ।
हम जैसी तुम जीन करो, मेरा तलफ तलफ जाय जीवजी ॥
जीवरा तो जीवे नहीं, क्यों मिते दिलकी प्यासजी ।
तुम बिना में किनसों कहों, पिया तुम हो मेरी आसजी ॥
आस बिरानी तो करूं, पिया जो कोई दूसरा होयजी ।
सब बिध पियाजी साम्रथ, दीन रैन जात रोय रोयजी ॥
जन्म अंधजो हम हती, पिया सो तुम देखिते कियेजी ।
जब तुम आप दिखाओगे, तब देखुं नैन नजरजी ॥
ए पुकार पिया सुनके, ढिल करो अब जिनजी ।
खीन खीन खबर जो लिजीयों, मैं अर्ज करुं दुलहीनजी ॥
एती अर्ज मैं तो करुं पिया, बीच पडी अंतरायजी ।
सो अंतराय आडी टालके, गुलहा लीजे कंठ लगायजी ॥
कंठ लगाई कंठसुं, कीजे हांस बीलासजी ।
वारणे जाय श्री इन्द्रावती, पिया राखों कदमों के पासजी ॥
तुम दुलहा मैं दुलहीन, और ना जानु बातजी ।
इश्क सों सेवा करुं, सबो अंगो साक्षातजी ॥
सदा सुख दाता श्री धाम धणी, मैं कहां कहुं इन बातजी ।
श्री महामति जुगल किशोर पर, वारी अंगना बल बल जातजी ॥

प्रणाम सुंदरसाथजी

Friday, June 1, 2012

Sundarsathji Jago........

jin sudh seva ki nahi, na kachu sajhe baat l
so kaahe ko ginave aap sathme, jin sudh na supan sakhyat ll

arthaat: jin logo ko dhaniji ki pahchan evam sevaki sudhi nahi hai, ve gudh rahasyo ko nahi samaj sakte, ese log svayam ko sundarsath me kyo ginate he, jinhe na svapna sansaar ki sudhi he aur na hi sakshat dhamdhani ki pahchan he.

kamar bandhe dekha dekhi, jane ham bhi lage tin laar l
le   kabila    kandh    par,  hanste    chale    nar    naar ll

arthat: ese log dusaro ki dekha dekhi kamar bandh kar taiyar hote he aur maan lete he ki ham bhi brahmsrushti ke marg par chal rahe he. apne kutumb parivar ka bhar kandhe me uthakar sansaarik sukho ko bhogate hue ese nar - nari bhi hanste hue chal rahe he.

e lok raah na pavahi, kyoe na sune pukar l
e chale chinti haar jyo, bandhe unt kataar ll

arthat: ese log satya ka marg grahan nahi kar sakte kyonki ve satya updesh sunate hi nahi. ve to matra chintiyo athava unto ki panktivat ek dusare se bandhe hue chalte he.

in  loko ki me kya kahu, jo jae pade sukh kaal l
jo sath kehelae samil bhae, so bhi kahu nek haal ll

arthat: in logo ki baat me kya karu jo jaanbujkar kaal ke mukh me pad rahe he. parantu jo log svayam ko sundarsath kahala kar sundarsath ke samuh me sammilit hue he. me unki dasha ka bhi thada sa varnan karta hu.

dudh to dekhya nahi, dekhya uper ka fen l
daud kare pade khench me, e yo lage dukh den ll

arthat: jinhone dudh ko dekha hi nahi matra uper ke fen ko hi dekha he arthat jo vastavik rahasya ko samje bina matra bahya aadambar se hi bhramit ho rahe he aur parasparik khinchatan (vaad - vivad) me ho pade he, ve is prakar apne vyavhar se muje dukhi kar rahe he.

na pehechan prakrut ki, na pehchan hukam l
na sudh thaur nehechal ki, na sudh sarup brahm ll

arthat: maya me magna rahne wale logo ki akshar ki ichah shaktirupi prakruti tatha purnbrahm ke aadesh ki pahchan nahi he. unhe apne akhand ghar evam parbrahm parmatma ka bhi gyan nahi he.

sudh nahi nirakar ki, aur sudh nahi sun l
sudh na sarup kaal ki, na sudh bhai niranjan ll

arthat: ese logo ko nirakar ya shuny ki bhi sudhi nahi he. unhe iska bhi gyan nahi he ki kal ka svarup kya he aur niranjan kise kahte he?

nijnaam soi jaher hua, jaki sab duni raah dekhat l
mukti desi brahmand ko, aae brahm aatam sat ll

arthat: ab yah nijnaam (tartam mantra) prakat ho gaya he, jiski pratiksha sara sansaar kar raha tha isi nijnaam ko lekar paramdhamki brahmaatmaae prakat hui he. ab ve (tartam gyanke dvara) brahmand ke jeevo ko mukti degi.

Thursday, May 31, 2012

Shree Mukh Wani (Kuljam Sarup) Ka Khulasa

  • प्रथम अध्याय - माया का निरुपण
    (B) प्रक्रुति की पहचान

    (ख) ॥ मोह जल ॥

    १ भवजल चौदे भवन, निराकार पाल चौफेर ।
    त्रिगुन लहरी निरगुन की, उठे मोह अहम अंधेर ॥

    अर्थात: यह भव जल किसे भव सागर अथवा मोह सागर भी कहते है, की सीमा बडी विस्त्रुत है - लम्बी चौडी है। इस के अन्तरगत, चौदह लोक, अष्टावरण, ज्योति स्वरुप, मोह तत्व, सात शून्य आदि का अपार विस्तार है। एसे मोह सागर के चारों ओर निराकार का घेरा है। इस अंधकार से पुर्ण मोह सागर में त्रिगुन एवं निर्गुण की लहरे उठा करती है।

    २ तान तीखे ज्ञान इलम के, दुंद भमरियां अकल ।
    बहें पंथ - पैडे, आडे उलटे, झुठ अथाह मोह जल ॥

    अर्थात: इस मोह सागर की भली भांति, जानकारी न होने के कारण, लोगों में ज्ञान अथवा इलम की अनावश्यक रवेंचा तानी मची है। यह रवेचातानी (अपने मत को सर्व श्रेष्ट कहना) जन साधारण की बुद्धि में दुविधा के बवंडर खडा कर देती है। असंख्य पंथ पैडे, दिन मजहब उलटे सीधे मार्गो की तरह चल निकले है, परन्तु वे इस मोहजल से, जो अथाह असत्य का सागर है, से निकलने या पार पहुंचाने में असमर्थ है।

    ३ ता में बडे जीव मोह जल के, मगरमच्छ विकराल ।
    बडा छोटे को निगलत, एक दूजे का काल ॥

    अर्थात: इस मोह सागर में मगरमच्छ से भी विकराल और भयंकर जीव है। बडा जीव छोडे जीव को निगल रहा है। समस्त जीव काल के समान, एक दुसरे को निगलने (दबोचने) के लिए तत्पर रहते हैं।

    ४ घाट न पाई वाट किने, दिस न काहूं द्वार ।
    उपर तले मांहे बाहेर, गए कर कर खाली विचार ॥

    अर्थात: इस मिथ्या भव सागर में किसी को घाट और वाट (मार्ग) नहीं मिला, फिर दिशा और द्वार क तो कह्ना ही क्या ? बडे बडे ज्ञानी जन, जिन्हो ने अन्दर बाहेर, चारो ओर दसो दिशाओं को भी ठोक बजाकर देखा, वे भी अपने थोथे (सीमित) मंतव्य को देकर चले गए।

    ५ जीवे आतम अंधी करी, मिल अंतस्करण अंधेर ।
    गिरदवाए अंधी इन्द्रियां, तिन लई आतम को धेर ॥

    अर्थात: यहां जीव ने अन्तस्करण से मिल कर, आत्मा को अंधा बना दिया है। अंग अंग को वशीभूत करने वाली इन्द्रियों के मादक रस ने चारों ओर से आत्मा को घेर रखा है।

    ६ पांच तत्व, तारा ससि, सूर फिरें फिरे त्रिगुन निरगुन ।
    पुरुष प्रक्रुति या में फिरें, निरांकार निरंजन सुनं ॥

    अर्थात: पांच तत्व, चन्द्रमा, सूर्य, तारागण एवं नक्षत्र तथा त्रिगुन एवं निर्गुण सब के सब उसी व्रुत (दायरे) में घूम रहे है। पुरुष या प्रक्रुति कोई भी स्थिर नहीं। निराकार - निरंजन शून्य सहित सभी चलायमान है। ये सब पल पल पैदा होते है और उसी क्षण विनष्ट हो जाते है।

    ७ देत काल परिक्रमा इनकी, दोऊ तिमिर तेज दिखाए ।
    गिनती सरत पहुंचाए के, आखिर सबे उडाए ॥

    अर्थात: अंधकार और प्रकास, रात तथा दिन का व्रुत पूरा कर के, काल इन के आसपास परिक्रमा करता है। समय का चक्र श्वांसो की गिनती पूरी होते ही अन्त में यह काल, सब को लील (निगल) लेता है।


    ८ महाविष्णु सुन्य प्रक्रुति, निराकार निरंजन ।
    ए काल द्वैत को कौन है, ए सुध नहीं त्रिगुन ॥

    अर्थात: इस प्रकार महा विष्णु, शून्य प्रक्रुति, निराकार और निरंजन आदि द्वैत भाव (महा - माया) का काल अथवा समाप्त करने वाला, अद्वैत स्वरुप कौन है, इस की सुधि त्रिगुण - त्रिदेवा तक को भी नहीं।

    ९ प्रलय पैदा की सुध नहीं, तो ए क्या जाने अक्षर ।
    लोक जिमी आसमान के, इन की याही बीच नजर ॥

    अर्थात: जिन्हे उत्पत्ति और लय की ही पूरी पहचान नही, वे अक्षर ब्रह्म के विषय में क्या जाने ? यह अक्षर ब्रह्म, अक्षरातीत का सत अंग है, जो एक पलमें, एसे कई ब्रह्मांड उत्पन्न करते है और पलभर में ये ब्रह्मांड उत्पन्न होकर, लय भी हो जाते है।

    १० सो अक्षर मेरे धनी के, नित आवे दरसन ।
    ए लीला इन भांत कीइ, इत होत सदा बरतन ॥

    अर्थात: एसे अक्षर ब्रह्म, मेरे अक्षरातीत स्वामी के नित्य दर्शन को आते हैं। इस प्रकार की अनेक लीलाए, वहां नित्य निरंतर चलती रहती है।

    ११ अक्षरातीत के मोहोल में, प्रेम इसक बरतत ।
    सो सुध अक्षर को नहीं, किन विध केल करत ॥

    अर्थात: अक्षरातीत ब्रह्म के मोहोल में, सम्पादित होने वाली लीला का आनंद क्या है, इसकी सुधि अक्षर ब्रह्म तक को नहीं।

    १२ सो सुध, वतन मोहे सब दियो, मेरे अक्षरातीत धनी ।
    ब्रह्म स्रुष्ट मिने सिरोमण, मैं भई सुहागनी ॥

    अर्थात: वही परमधाम अखंड वतन है एवं पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत ही हमारी आत्मा के प्रियतम पति है। अपनी आत्मा का उन में समागम (एकाकार) करके मैं सुहागिन हो गई ।
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    मेरे मिठे बोलें साथजी, हुआ तुम्हारा काम ।
    प्रेम में मगन होईयों, खुलियां दरवाजा धाम ॥

    श्री राजजी के लाडलें सुंदरसाथजी के चरनों में मेरा मंगल प्रणाम

Wednesday, May 30, 2012

''कृष्ण प्रणामी धर्म''- एक सनातन धर्म


''कृष्ण प्रणामी धर्म''- एक सनातन धर्म
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सनातन का अर्थ है, जो शाश्वत हो। सदा के लिए सत्य हो जिन बातो का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है । जैसे- सत्य सनातन है, परमात्मा सत्य है, आत्मा सत्य है, अखण्ड मोक्ष सत्य है ।मनुष्य का परम उद्देश्य उस परम सत्य को जानना उसको प्राप्त करना वह सत्य जिसे मनुष्य जानना चाहता है, जिसे वह पाना चाहता है उसी सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म सनातन धर्म है।आज विश्व में अनेकों धर्म और सम्प्रदायों का प्रचलन है किन्तु उन सभी धर्म और सम्प्रदायों मूल में एक मात्र सनातन धर्म है अर्थात दूसरेशब्दों में कह दिया जाए मूल धर्म तो सनातन धर्म है; हिन्दु ,मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि सनातन धर्म के सम्प्रदाय मात्र है।

सनातन धर्म एकेश्वरवादी है। इस संदर्भ वेदों का कथन है-
''एको ब्रह्म द्वितीय नास्ती ।''
ब्रह्म एक है, अर्थात वह परमात्मा एक ही है, इसके अलावा कोई दूसरा ईश्वर नहीं।कुछ इसी प्रकार का मत कुरान का भी है-
'' ला ईलाह ईल अल्लाह ''
वह अल्लाह एक ही है, उसके अलावा दूसरा कोई माबूद नहीं ।बाईबल भी इसी प्रकार के मत का पोषण करती है, अतः यदि हम सनातन धर्म अर्थात परमात्मा के धर्म का अनुपालन करते है तो हमें बहुदेव वाद, अवतार वाद, पैगम्बरों, तिर्थंकरों आदि के स्थान पर परब्रह्म परमात्मा को स्थापित करना होगा ।क्योंकी हमारें आदि ग्रन्थ जिसके बारे में हमार सर्वमान्य मत है कि वे परमात्मा कि वाणी है,वेदों के बारे मे कथन है- चार ॠषि जब हिमालय की गुफाओं मे तपस्या मे लिप्त थे तब उनके कानो ने इस वाणी(वेदों) को सुना कुरान शरीफ भी खुदा की आवाज है जब हजरत मुहम्द साहब 'गार ए हिरा' में इबादत कर रहें थे तब उनकें कानों ने कुरान की आयतें सुनी , बाईबल के बारें में भी कुछ इसी तरह की अवधारणा प्रचलित है, वह परमात्मा से प्रेरित फांट है, तथा इन सभी धर्म ग्रन्थों मे परमात्मा ने अपने अवतरण और ब्रह्म विषयक गुढ रहस्यों को समय समय पर फरिश्तों के माध्यम से अंकित करवाया है ।प्रायः सभी धर्म ग्रन्थों नें परमात्मा के अवतरण की भविष्यवाणियां नियत तिथियों के व उनके अवतरण की निशानियों के साथ के साथ है। हिन्दु धर्म शास्त्रों का मत का मत है विजियाभिनंदन प्रकट होंगें वह निश्कंलक होगें कलयुग के प्रभाव को नष्ट करेगें, कुरान शरीफ कह्ता है- कयामत के समय खुदाताला स्वयं इमाम मेंहदी केरूप मे जाहिर होगें व तोहीद राह (एक खुदा कि पूजा )का प्रचार करते हूए सत्य धर्म की स्थापना करेंगें, बाईबल क मत भी इसी प्रकार का है-ईसा मसीह पुनः अवतरित होगें व सत्य धर्म की स्थापना करेंगें , यहूदियों का मानना है कि , अन्तिम घडी में मूसा पैगम्बर आयेंगें तथा उसकें द्वारा समस्त जीवों कों मुक्ति मिलेगी अतः समस्त धर्म ग्रन्थों की भविष्यवाणियों के अनुरूप विश्व धर्म की स्थापना हैतु व अखंड मुक्तिदाता के रूप मे स्वलीला द्वैत सम्पन्न महामती श्री प्राणनाथ का प्रादुर्भाव सत्रहवी शताब्दी में हुआ उनका मूल नाम मिहिर राज था मिहिर का अर्थ संस्कृत व अरबी दौनों भाषा मे सूर्य होता है,तथा राज अर्थात ''राजते स्वयं प्रकाशित यः स राजः '' अर्थात अनादि अक्षरातीत पूर्णब्रह्म श्री राज परम धाम (लाहुत /अर्शु अजीम /upper heaven /own land )से अवतरित हुए । कुरान मे स्पष्ट शब्दों मे उल्लेखित किया गया है कयामत के समय खुदा की साक्षी देने वाला स्वयं खुदा ही होगा ।

श्री प्राणनाथ जी ने तारतम वाणी से जो कि पूर्णब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप अक्षरातीत परमात्मा का साक्षात स्वरूप है के माध्यम से विश्व के समस्त धर्मों के गुढ अभिप्रेत अर्थ तथा मुक्तात हराफ(जिन शब्दों पर परमात्मा का ताला /कुफल लगा है) उन्है खोला । कुरान मे स्पष्ट शब्दों में कहा गया जो इन भेंदों को स्पष्ट करे उसे ही अल्लाह समझना ।महामती प्राणनाथ जी ने तारतम सागर / कुलजम स्वरूप ग्रन्थ जो कि परब्रह्म तथा उनके अखण्ड धाम व उनकी लीलओं का ज्ञान देने वाली ब्रह्मवाणी (साक्षात परमात्मा अक्षरातीत प्राणनाथ जी के मुखारविन्द से अवतरित ) ''इलम ए लदुन्नी'' है। यह ब्रह्मवाणी अखण्ड मोक्ष प्रदायनी है। तथा उनके द्वार स्थापित धर्म जिसे कृष्ण प्रणामी धर्म या निजानंद धर्म के नाम से भी जाना जात है वह सम्पूर्ण संसार का वैमनस्य मिटाकर सत्य धर्म की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है-
''कलंक रहित सतधर्म आप्यो, ज्ञान खड्क लखि कलयुग कांपयो ।
निजानंद धर्म निष्कलंक को जो इह, जीव सकल को परम पद देहि ॥

अर्थात आत्म ( निजानंद) धर्म के अलावा कोई अलग धर्म अथवा सम्प्रदाय नही है अपितु सब धर्मो की सामुहिक पहचान -कुल जम सरूप है और समस्त जीवों को शाश्वत मुक्ति क अधिकारी बनाएगा ।

प्रेम प्रणाम जी
 
प्रथम अध्याय - माया का निरुपण
(A) (स्वरुप, उदगम एवं विस्तार)

(ख)

१ वेदान्ती माया को यो कहें, काल तीनों जरा भी नांहे ।
चेतन व्यापी जो देखियें, सो भी उडावे तिन पांहे ॥

२ ना कछु नाकछु, ए कहें, ओ सत चिद आनंद ।

असत सत को न संग, ए क्यों कर होए सम्बंध ॥

३ ए जो व्यापक आत्मा, पर आतम के संग ।
क्यों ब्रह्म नेहेचल पाइये, इत बीच नार को फंद ॥

४ निवेरा खीर नीर का महामत करे कौन और ।
माया ब्रह्म चिन्हाए के, सतगुरु बतावे ठौर ॥

अर्थात:
वेदान्ती लोग एक और तो " सर्वखलुइदमब्रह्म " की घोषणा करते है और दूसरी और माया के किए कहते है कि इस माया का तीनो काल - भूत, वर्तमान एवं भविष्य में अस्तित्व ही नहीं। इस प्रकार से सर्वव्यापक चेतन तत्व को भी इसी के अन्त: भुक्त कर देते है।

(२) परम तत्व का परिचय "यह नही है" "यह नही है" अर्थात नकारात्मक शब्दो में देते है। परन्तु वह परम तत्व तो, सत, चिद, आनंद - सच्चिदानंद स्वरुप है। असत्य माया और सत्यब्रह्म कभी नही सकते। इन का सम्बध ही कैसे हो सक्ता है ?

(३) यह आत्मा जो सब में व्याप्त हैं, उस का सम्बंध परात्मसे है। इन दोनों के बीच इस माया का भ्रम जाल फैला है। अखंड अविनाशी ब्रह्म को कैसे पाया जाए, यही प्रश्नात्मक चिह्न है ?

(४) श्री महामतिजी कहते हैं कि खीर तथा नीर का विवेचन अर्थात ब्रह्म और माया का निर्णय, सत गुरु के बिना कौन कर सकता है ? माया और ब्रह्म की पहचान करा के अखंड घर का परिचय मात्र सत गुरु ही दे सकते हैं।

श्री राजजी की लाडली सखी के चरनों में मेरा प्रेम प्रणाम
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(B) प्रक्रुति की पहचान

भगवान गीता में श्री क्रिष्ण जी ने अर्जुन को प्रक्रुति के विषय में बतलाते हुए कहा है।

भूमिरापोडनलो वायु: खंमनोबुद्धरेवच ।
अहंकार इति इयम मे भिन्ना प्रक्रुतिर ष्रुधा ॥

अर्थात:
भूमि (प्रुथ्वी) , जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, मन, बुद्धि, एवं अहंकार - ये उनकी आठ प्रकार की प्रक्रुति है। इस सम्बंध में यदि वैराट के पट (नकशा) का भली भांती अवलोकन किया जाए तो उपरोक्त आठ प्रकार की प्रक्रुति, अष्टावरण - आठ आवरणों के रुप में चौदह लोकों (अतल - वितल - सुतल - तलातल - महातल - रसातल - पाताल तथा भू (म्रुत्यु) लोक, भवंर लोक, स्वर्ग लोक, महर्लोक, जन लोक, तप लोक, एवं सत लोक) को घेरे हुए है जो कि माया का दूसरा रुप है। इस पूर्णतय: पहचान " श्री मुख वाणी " के किरन्तन ग्रन्थ के एक प्रकरण में, निम्न प्रकार से कराई गई है:-

(क)
१ माया आद अनाद की, चली जात अंधेर ।
निरगुन सरगुन होए के व्यापक, आए फिरत है फेर ॥

२ ना पहचान प्रक्रुति की, ना पहचान हुकम ।
ना सुध ठौर नेहेचल की, ना सुध रुप ब्रह्म ॥

३ सुध नही निराकार की और सुध नही सुनं ।
सुध न सरुप काल की, ना सुध भई निरंजन ॥

४ ना सुध जीव सरुप की, ना सुध जीव वतन ।
ना सुध मोह तत्व की, जिन थे अहम उत्पन ॥

५ शास्त्रों जीव अमर कह्यो, और प्रलय चौदे भवन ।
और प्रलय पांचो तत्व, प्रलय कहे त्रिगुन ॥

६ और प्रलय प्रक्रुति कही, और प्रलय सब उतपन ।
ना सुध ब्रह्म अद्दैत की, ए कबहुं न कही किन ॥

७ ए आद के संसे अब लों, किनहुं न खोले किन ।
सो साहेब इत आएके, खोल दिए मोहे सब ॥

८ प्रक्रुति पैदा करे, एसे कई इंड आलम ।
ए ठौर माया ब्रह्म सबलिक, त्रिगुन की प्ररात्म ॥

९ कै इंड अक्षर की नजरों, पल में होए पैदाए ।
एसे ही इंड जात हैं, एक निमख में नास ॥

१० केवल ब्रह्म अक्षरातीत, सत चिद आनंद ब्रह्म ।
ए कह्यो मोहे नेहेचे कर, इन आनंद में हम तुम ॥

११ हबीब बताया हादिए, मेरा ही मुझ पास ।
कर कुरबानी अपनी, जाहेर करुं विलास ॥

१२ ब्रह्म स्रुष्टि और ब्रह्म की है सुध कतेब - वेद ।
सो आप आखर आए के, अपना जाहेर किया सब भेद ॥

अर्थात:
इस मायावी स्रुष्टि की हकीकत बडी विचित्र है। यह *आदिा तथा *अनादि काल से अंधकार में चली जा रही है। कहीं पर साकार रुपमें और कहीं पर निराकार रुपमें, सारे संसार में व्याप्त हो कर आबागमन (जीवन एवं मरण) के चक्कर में पडी है।

(२) इस मायावी संसार के लोगों को अक्षरब्रह्म की इच्छा शक्ति अर्थात मूल प्रक्रुति की पहचान नहीं है, जिस के द्वारा यह स्रुष्टि स्रुजित होती है। न ही उन्हें अखंड एवं अद्वैत धाम की पहचान है और न ही ब्रह्म के वास्तविक स्चरुप का ज्ञान ।

(३) किसी को निराकार और शून्य के तथ्य की भी पहचान नहीं की यह माया किस प्रकार से निराकार हो कर सब में व्याप्त है और अन्तरात्मा में ह्रदय को किस प्रकार अपने अंधकार से शून्य कर देती है, इस की जानकारी भी किसी को नहीं। इस माया की काल शक्ति के द्वारा प्राणियों के प्राण किस प्रकार नष्ट होते हैं और किस प्रकार किसीको नजर न आने से निरंजन कहलाती है, इस तथ्य की पहचान भी किसी को नहीं।

(४) इस संसार के मायावी ज्ञान के लोगों को, यह भी जानकारी नहीं कि उन के जीव का मूल सम्बंध कहां से है और कैसा है तथा इस जीव की उत्पत्ति का स्थान काहां से है ? इस के अतिरिक्त मोहतत्व जिस से अहंकार की उत्पत्ति हुई है उस के उत्पन्न होने का कारण अर्थात कहां से एवं किस प्रकार मोह उत्पन्न हुआ, इस की भी पहचान किसी को नहीं।

(५) शास्त्रों में जीव को तो अमर अविनाशी कर के कहा है और चौदह लोकों की स्रुष्टि को नाशवान बताया है। यहां तक की पांचो तत्व के साथ साथ तीनों गुणो (सत - तम - रज) के देव *ब्रह्म - विष्णु - महेश को भी प्रलय में नाशवान बताया है।

(६) शास्त्र यह भी कहते है कि प्रक्रुति स्वयं प्रलय आधीन है। उस में जो भी रचनाए हैं अथवा जितनी भी वस्तुए पैदा होती है और प्राणी जन्म लेते है वे सब प्रलय में नाश होने वाले है। परन्तु इस माया से रहित अद्वैत ब्रह्म और उस के परम धाम की वार्ता (बात) किसी ने नहीं की।

(७) इन सब के विषयमें, आदि काल से आज तक, चले आ रहे संशयो का निवारण किसीने नहीं किया। निजानंद स्वामी श्री देवचंद्रजी ने यहां प्रकट हो कर इन सब का निवारण कर दिया।

(८) मूल प्रक्रुति, इस संसार की भांति अनेक ब्रह्मांड उत्पन्न करती है। त्रिगुणात्मक तीनों देव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश के परात्म स्वरुप और माया की उत्पत्ति का स्थान अक्षर ब्रह्म के अन्तर्गत सबलिक ब्रह्म है।

(९) एसे कई त्रिगुणात्मक ब्रह्मांड, अक्षरब्रह्म की द्रुष्टि के पाव - पलक (भाव भंगिमा) में पैदा हो कर क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं।

(१०) निजानंद स्वामी धनी देवचंद्रजी ने बताया कि अक्षरातीत ब्रह्म ही केवल अद्वैत सच्चिदानंद स्वरुप परमात्मा है। उसी के परमधाम आनंद धाम में हमारी परात्म विध्यमान है।

(११) हादी - सतगुरु ने यह भी कहा कि तुम्हारा प्रियतम परमात्मा * श्री राजजी निश्चित रुप से तुम्हारे पास (निकटतम) ही हैं। उन पर अपने अहम (मैं पन) को अर्थात स्वयं को निछावर करते हुए, उस की निजलीला में विलास करो और उस अद्वैत एवं प्रेममयी लीला को संसार में जाहेर करो।

(१२) इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत ने सतगुरु के रुप में प्रगट हो कर, ब्रह्म एवं ब्रह्म आत्माओं के जो संकेत वेद और कतेब में है, उन संकेतो को रहस्यमयी वाणी को अन्तिम घडी में अर्थात सामूहीक जागनी की वेला में स्वयं स्पष्ट कर दिए।

श्री राजजी की परम सखीयों के चरणों में मेरा प्रेम प्रणाम
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